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दुख और संघर्षो का बोझ : हर्ष मंदर

पुणे की यरवदा जेल का बैरक नंबर तीन। सूरज की पहली किरणों इसके उदास अंदरूनी अहातों तक पहुंचें, इससे भी पहले एक महिला उठकर काम में जुट गई है। यह उसकी दिनचर्या का एक हिस्सा है। बैरक की ठंडी फर्श पर अब भी 52 महिला बंदी अलसभोर की गहरी नींद में डूबी हुई हैं। सभी के बदन पर हरी साड़ियां हैं, जिनका रंग अब फीका पड़ता जा रहा है। बंदिनियों की यही...

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मुद्दा: गरीब की नई परिभाषा

गरीबी: सभ्य समाज के इस सबसे बड़े अभिशाप को राष्ट्रपिता गांधी जी ने हिंसा का सबसे खराब रूप कहा। करेला उस पर नीम चढ़ा कि स्थिति यह कि गरीबों को 'गरीब' न मानना। हमारे हुक्मरानों ने गरीबों की नई परिभाषा गढ़ी है। अगर आप शहर में रहकर 32 रुपये और गांव में रहकर 26 रुपये प्रतिदिन से अधिक खर्च कर रहे हैं तो आप गरीब नहीं है। खुद को गरीब मानते...

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निर्धनता का विचित्र पैमाना- संजय गुप्त

उच्चतम न्यायालय में सार्वजनिक वितरण प्रणाली की खामियां दूर करने के मामले की सुनवाई के सिलसिले में योजना आयोग के इस हलफनामे ने देश को चौंका दिया कि शहरी क्षेत्रों में प्रतिदिन 32 और ग्रामीण इलाकों में 26 रुपये खर्च करने वाले लोग गरीबी रेखा से ऊपर माने जाएंगे। इस हलफनामे से योजना आयोग के साथ-साथ केंद्र सरकार की भी फजीहत हुई। इस हलफनामे को लेकर सबने सरकार को कोसा।...

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राज्यपाल से मजदूरी भुगतान की मांग

लातेहार : ग्रामीण विकास विशेष प्रमंडल के द्वारा मनरेगा के तहत कराए गए कार्यो में मजदूरी भुगतान नही होने से महुआडांड़ के मजदूरों ने झारखंड के राज्यपाल को मजदूरी भुगतान कराने के लिए ज्ञापन दिया है। इस संबंध में महुआडांड़ से आए मजदूरों ने बताया कि हमलोगों ने मनरेगा के तहत 2008-09 में विशेष प्रमंडल के द्वारा चलाई जा रही योजनाओं में काम किया था, मगर आज तक मजदूरी का भुगतान...

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गोदान : किसान की शोकगाथा--- . गोपाल प्रधान

  ‘गोदान’ के प्रकाशन के 75 साल पूरे हो गए हैं लेकिन भारत का देहाती जीवन आज भी लगभग उन्हीं समस्याओं और चुनौतियों से घिरा दिखता है जिनका वर्णन मुंशी प्रेमचंद के इस कालजयी उपन्यास में हुआ है. गोपाल प्रधान का आलेख    सन 1935 में लिखे होने के बावजूद प्रेमचंद के उपन्यास 'गोदान' को पढ़ते हुए आज भी लगता है जैसे इसी समय के ग्रामीण जीवन की कथा सुन रहे हों....

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