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एक वाजिब मांग का पूरा होना- शिवदान सिंह

लंबे अरसे से अटकी वन रैंक वन पेंशन की मांग को पूरा करना सरकार के लिए मुश्किल भरा फैसला भले हो, लेकिन यह पूर्व सैन्यकर्मियों की वाजिब मांग थी। फौजियों का कहना गलत नहीं था कि जब दो फौजी एक पद पर, एक समय तक सेवा देकर सेवानिवृत्त होते हैं, तो उनकी सेवानिवृत्त के वर्षों के अंतर में नया वेतन आयोग भी आ जाता है, जिस कारण बाद में रिटायर...

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समाख्या की साथिनें- निवेदिता

हमारी मुलाकात ट्रेन में हुई थी। पहली बार जब मैं उससे मिली तो वह बेहद डरी और जिंदगी से हारी हुई दिख रही थी। वह परेशान थी अपने पति की लगातार हिंसा से। उसकी आंखों में मानो बादल तैर रहे थे, जिसे वह सबकी नजरों से बचा कर पोंछ लेती थी। जब हम बातें करने लगे तो पता नहीं उसके दिल का कितना कोना भीग रहा था। जैसे डूबते को...

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गांधी का स्वराज और युवाओं की उम्मीदें- रामचंद्र राही

आज जब हम स्वतंत्रता दिवस का जश्न मना रहे हैं, तो स्वाभाविक है कि एक लोकतांत्रिक देश के सजग नागरिक होने के नाते हम यह पड़ताल करें कि देश की आजादी के महानायकों ने हमारे लिए जो स्वप्न देखे थे, वे कितने पूरे हुए। और यदि पूरे नहीं हुए हैं, तो आखिर हमसे गलतियां कहां हुई हैं? ऐसे में हमें सहज ही राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का ध्यान आता है, जिन्होंने आजादी...

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सामाजिक बराबरी का जरिया बने शिक्षा- अनिल प्रकाश जोशी

आज के सामाजिक सरोकार कितने भी दावे कर ले, पर यह पूरी तरह सच है कि आने वाले समय में हम भटके हुए समाज कहलाएंगे। स्वतंत्रता के 67 साल बाद भी हमने बहुत से मुद्धों को सिरे से नकार रखा है। उनमें एक बहुत बड़ा विषय हमारी शिक्षा प्रणाली का है। अपने देश में शिक्षा के कई स्तर हैं और उसी से पैदा पीढ़ी का व्यवहार व दायित्व उसी अनुसार...

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भेदभाव का यंत्र नहीं मोबाइल- नीलांजन मुखोपाध्याय

करीब बीस वर्ष पहले की बात है। तब के केंद्रीय संचार मंत्री ने पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री ज्योति बसु को हाथ से पकड़ने वाले एक यंत्र से फोन किया। बसु ने कलकत्ता (अब कोलकाता) में उसी तरह से हाथ में पकड़ने वाले यंत्र से संचार मंत्री की बातें सुनीं। आखिर इस बातचीत में खास क्या था? असल में, दोनों व्यक्ति जिस यंत्र से बात कर रहे थे, वह न...

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