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महामारी की आड़ में जनता को जनसुनवाई से महरूम करने की कोशिश?

-न्यूजलॉन्ड्री, लॉकडाउन के समय जनता घर में बंद थी और लाखों मजदूर सड़क पर थे. ऐसे में केंद्र सरकार ने पूर्व में बनाए गए कई नियम-कानूनों में ऐसे संशोधन प्रस्तावित कर दिए जिन्हें यदि वह सामान्य समय में प्रस्तावित करती तो उसे कड़े विरोध का सामना करना पड़ता. इन प्रस्तावित संशोधनों में सबसे महत्वपूर्ण संशोधन है केंद्रीय पर्यावरण ए वंजलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन (ईआईए यानी एनवायरमेंट इंपैक्ट ऐससमेंट)...

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क्या किसानों को तबाह कर के पूरी की जाएगी भारतमाला परियोजना?

-जनपथ, इस पूंजीवादी मॉडल की बेतरतीब योजनाओं में भारत की बुनियाद का तिनका-तिनका धरा पर बिखरता जा रहा है। किसान नेमत का नहीं बल्कि सत्ता की नीयत का मारा है। भारतमाला परियोजना के तहत बन रही सड़कें किसानों में बगावत के सुर पैदा कर रही हैं। इस योजना के तहत छह लेन का एक हाइवे गुजरात के जामनगर से पंजाब के अमृतसर तक बन रहा है, फिर आगे हिमालयी राज्यों तक...

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धारावी: मुंबई के हॉटस्पॉट में कोरोना कंट्रोल की कहानी

-द क्विंट, जब अप्रैल और मई में धारावी में हर दिन एक मौत और दो दर्जन से ज्यादा कोरोना पॉजिटिव केस लगातार सामने आ रहे थे, तब यह महाराष्ट्र सरकार के लिए सबसे बड़ा सिरदर्द बन गया था. हालांकि अब यहां स्थिति में थोड़ा सा सुधार होने लगा है. कोविड-19 के इस हॉटस्पॉट धारावी से जून के पहले हफ्ते में कोरोना से मौत का एक भी मामला सामने नहीं आया. मई 2020...

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जीरो बजट कृषि का विचार नोटबंदी की तरह घातक है- राजू शेट्टी

शून्य बजट प्राकृतिक कृषि को लेकर एक स्वाभाविक आकर्षण है क्योंकि यह कृषि जैसे मुश्किल व्यवसाय को सरलता से प्रकट करता है। शून्य बजट प्राकृतिक कृषि में जोखिम कम होता है और पूंजी की आवश्यकता नहीं के बराबर होती है। इसे विदर्भ के किसान नेता सुभाष पालेकर द्वारा गढ़ा गया है जिन्हें 2016 में पद्म श्री से सम्मानित किया गया था। शून्य बजट प्राकृतिक कृषि को वैसा ही स्थान मिला...

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सबसे बड़े लोकतंत्र में धरना-प्रदर्शनों की आवाज़ क्यों नहीं सुनी जाती?- माधव शर्मा

जयपुर: देश में चुनाव हो रहे हैं. हर तरफ लोकतंत्र, नागरिक अधिकार, संविधान की रक्षा और विकास जैसे शब्द कई तरह के नारों के साथ हर रोज़ सुनाई दे रहे हैं, लेकिन दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र इन शब्दों को सही मायनों में ज़मीन पर उतारने में लगभग नाकाम ही रहा है. स्वस्थ लोकतंत्र में संवैधानिक हक़ के तौर पर देश के नागरिकों को मिले शांतिपूर्वक विरोध, धरने और प्रदर्शनों के...

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