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विषमता का विकास और राजनीति- सुरेश पंडित

जनसत्ता 26 दिसंबर, 2013 : जैसे-जैसे सोलहवीं लोकसभा के चुनाव नजदीक आ रहे हैं, राजनीतिक दलों की सक्रियता बढ़ रही है। कांग्रेस और भाजपा अपने अधिकतम भौतिक और मानवीय संसाधन झोंक कर इस चुनाव को किसी भी तरह जीत लेने के लिए कटिबद्ध दिखाई दे रही हैं। मतदाताओं को रिझाने के लिए उनके पास विकास के अलावा और कोई खास मुद्दा नहीं है और चूंकि इसे पहले भी कई बार आजमाया...

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भारतीय कंपनियों के बार्डरुम में दलित कहां हैं?

सोचकर बताइए कि स्टॉक-एक्सचेंज में सूचीबद्ध भारत की निजी और सार्वजनिक क्षेत्र की बड़ी कंपनियों के बोर्डरुम में दलित या फिर आदिवासी समुदाय के व्यक्ति कितने फीसदी होंगे ? हैरतअंगेज चाहे जितना लगे लेकिन आंकड़ा कहता है लगभग ना के बराबर यानि शून्य। डी अजित, हान डोनकर और रवि सक्सेना द्वारा किए एक अध्ययन का खुलासा है कि एक ऐसे वक्त में जब जातीय और नस्ली गैरबराबरी के मुद्दे पूरी...

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एक समान शिक्षा का विकल्प शिरीष खरे

‘स्कूल चले हम’ कहते वक्त अलग-अलग स्कूलों में पल रही गैरबराबरी पर हमारा ध्यान ही नहीं जाता. एक ओर जहां क, ख, ग लिखने के लिए ब्लैकबोर्ड तक नही पहुंचे हैं, वहीं दूसरी तरफ चंद बच्चे प्राइवेट स्कूलों में मंहगी ईमारत, अंग्रेजी माध्यम और शिक्षा की जरूरी व्यवस्थाओं का फायदा उठा रहे हैं. केन्द्रीय कर्मचारियों के बच्चों के लिए केन्द्रीय विद्यालय हैं, सैनिको के बच्चों के लिए सैनिक स्कूल हैं, तो...

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अलख जगाती एक यात्रा-- मेधा

११ दिसंबर दिन शनिवार का है। बापू की समाधि राजघाट पर जनमेला लगा है। देश भर से लोग अपनी रंगत, अपने लिबास, अपनी भाषा में विविधता संजोए आए हैं। कुछ है जो रंग-बिरंगी विविधता से भरे इन लोगों के मन को एकरस बना रहा है। सब के दिलों में एक ही तमन्ना धड़क रही है। और वह तमन्ना है - शस्य श्यामला ध्रती की उर्वरा-शक्ति, उसकी जीवंतता को बचाने की,...

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चिराग तले अंधेरा....

अधिकारों की हिफाजत में कानून बनाना एक बात है और सच्चाई की जमीन पर उतार पाना एकदम दूसरी बात।देश की राजधानी दिल्ली को ही देखें। एक तरफ तो शिक्षा के बुनियादी अधिकार को साकार करने के लिए कानून अमल में आ गया है दूसरी तऱफ देश की राजधानी दिल्ली में में कामगार तबके की आबादी वाले कॉलोनियों में बच्चे नियमित पढ़ाई लिखाई से वंचित हो रहे हैं। दिल्ली में रोजमर्रा की...

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