गुजरात में हार्दिक पटेल का अचानक उदय कई मायनों में आश्चर्यजनक था. इसके आकलन के लिए कई सिद्धांत लगाये जा रहे हैं. अन्य राज्यों में भी अगर इस आंदोलन की प्रतिध्वनि उभर कर आती है, तो यह कुछ नये राजकीय समीकरणों की शुरुआत हो सकती है. अगर ऐसा न होकर यह बात गुजरात तक ही सीमित रहती है, तो भी इसके परिणाम राष्ट्रीय स्तर पर दिखेंगे. औद्योगीकरण में अगड़े...
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महंगाई में किसका स्वार्थ है-- अश्वनी कुमार ‘शुकरात'
फिल्म ‘पीपली लाइव' का एक गीत काफी लोकप्रिय हुआ था। इस गीत के माध्यम से एक प्रमुख सामाजिक-आर्थिक समस्या महंगाई की ओर ध्यान आकर्षित करने का प्रयास किया गया है। गीत के बोल हैं- ‘सइयां तो बहुत कमात हैं, महंगाई डायन खाए जात है।' यानी रात-दिन काम करने के बावजूद कमाई की अपेक्षा महंगाई कई गुना अधिक बढ़ती जा रही है। इसलिए घर में जो जरूरी पदार्थ आने चाहिए, वे...
More »सबके लिए पैसा है, पर किसानों के लिए नहीं - देविंदर शर्मा
मानसून खत्म हो चुका है। 14 प्रतिशत कम बारिश हुई है और देश में फसल वाले ऐसे करीब 39 फीसद इलाके हैं, जहां बिलकुल सूखा है। उम्मीद थी कि रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन किसानों के लिए वित्तीय लाभों और ऋण भुगतानों में छूट की श्रंखला की घोषणा करेंगे। इसकी जगह रघुराम राजन ने पिछले हफ्ते व्यावसायिक बैंकों के उधार देने की ब्याज दरों में काफी कटौती करने वाली...
More »कुपोषण से जूझता भारत- निकोलस क्रिस्तॉफ
हर वर्ष की तरह इस बार भी मैं अपनी 'विन ए ट्रिप' यात्रा पर भारत आया। भारतीय गांवों की यात्रा के दौरान मेरे साथ थे प्रतियोगिता के विजेता स्टेनफोर्ड यूनिवर्सिटी के ऑस्टिन मेयर। इस यात्रा के मूल में यह सवाल था, 'आखिर क्या वजह है कि भारत के लाखों बच्चे शारीरिक-मानसिक तौर पर कुपोषित रह जाते हैं?' भारत एक मजबूत लोकतंत्र हैं, जो मंगल तक अपना उपग्रह भेज चुका है। पर...
More »आंकड़े क्यों घटते दिख रहे हैं-- सुभाष गताड़े
दिलचस्प है कि इस बार अर्थशास्त्र का नोबल पुरस्कार एक ऐसे शख्स को मिला है, जिसने भारत में गरीबी नापने के प्रचलित तरीकों पर भी सवाल उठाकर इसे सुधारने में अहम भूमिका अदा की है। प्रचलित तरीकों से लोगों द्वारा किए जा रहे उपभोग का सही अनुमान नहीं लग पाता था और वास्तविक गरीबी का चित्र नहीं उभर पाता था। अर्थव्यवस्था में राज्य हस्तक्षेप के समर्थक इस वर्ष के नोबल विजेता...
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