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अब स्वयं न्यायपालिका न्याय की कसौटी पर-- शेखर गुप्ता

ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री हेरॉल्ड विल्सन की इस मशहूर पंक्ति को बदलने का लोभ हो रहा है कि ‘एक हफ्ता राजनीति में बहुत लंबा वक्त होता है।' मैं कहूंगा कि पिछला वीकेंड भारत के न्यायिक इतिहास में बहुत लंबा समय था। क्योंकि अपने सांस्थानिक प्रश्नों को सार्वजनिक बहस में लाने वाले चार जजों से पूछा गया कि इससे सुप्रीम कोर्ट की कार्यप्रणाली कैसे प्रभावित होगी तो उन्होंने कहा कि वे...

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सुप्रीम कोर्ट में अभूतपूर्व हलचल-- आशुतोष चतुर्वेदी

किसी भी लोकतांत्रिक देश में जब भी कोई संकट की घड़ी आती है, तो उस दौरान उसके प्रशासनिक प्रतिष्ठानों की एक तरह से परीक्षा होती है. लोकतंत्र का भविष्य इससे तय होता है कि ये प्रतिष्ठान कितने गंभीर झटकों को आत्मसात कर सकते हैं. इसमें सबसे महत्वपूर्ण हैं अदालतें और उसमें भी सर्वोपरि है सुप्रीम कोर्ट. समय-समय पर अन्य सत्ता प्रतिष्ठानों पर भले ही सवाल उठते रहे हों, लेकिन न्यायपालिका...

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तनाव के कगार पर असम-- योगेन्द्र यादव

असम बारूद के ढेर पर बैठा है. वहां की पार्टियां इसमें आग सुलगाकर वोट की रोटी सेंक रही हैं. बाकी देश आंख मूंदे बैठा है या सोच रहा है कि जब विस्फोट होगा, तब देखा जायेगा. समस्या पुरानी है, लेकिन संदर्भ नया है. विदेशी अाप्रवासियों का सवाल कई दशकों से असम का नासूर बना रहा है. आजादी के बाद से ही राज्य में देश के भीतर और बाहर दोनों तरफ...

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जेल सुधार का इंतजार-- पीयूष द्विवेदी

भारतीय समाज में जेल को लेकर अमूमन यही धारणा देखने को मिलेगी कि वह एक यंत्रणा-स्थल है, जहां अपराधी को उसके अपराधों के लिए तकलीफदेह तरीके से रख कर दंडित किया जाता है। इस धारणा को एकदम गलत तो नहीं कह सकते, मगर यह पूरी तरह सही भी नहीं है। निस्संदेह जेल में व्यक्ति को कठिन परिस्थितियों में ही रहना होता है, पर इसका यह अर्थ नहीं कि वह यंत्रणा-स्थल...

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विज्ञापन, समाज और कानून--- महेश तिवारी

प्रौद्योगिकी के विकास के साथ देश के भीतर विज्ञापनों की बाढ़-सी आ गई है। विज्ञापनों के द्वारा कंपनियां अपने उत्पाद के प्रति लोगों को रिझाने और आकर्षित करने के चक्कर में उपभोक्ताओं के प्रति अपने कर्तव्य और नैतिक जिम्मेदारियों से दूर हटती जा रही हैं। अपने उत्पाद के प्रचार के लिए कंपनियां मनोरंजन और खेल की दुनिया के सितारों को पेश करती हैं, ताकि लोग उनके सम्मोहन के प्रभाव में...

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