-द प्रिंट, बजट और आर्थिक सर्वेक्षण से व्यापक अर्थव्यवस्था के लिए सरकार की जो रणनीति उभरती है उसे इन शब्दों में सरलता से कहा जा सकता है—आर्थिक वृद्धि सभी समस्याओं का समाधान कर देगी. यह रणनीति दो दशक पहले कारगर होती थी जब व्यापक अर्थव्यवस्था के संकेतक आज के वित्तीय घाटे के लिहाज से हुआ करते थे, सरकारी कर्ज पर ब्याज भारी होता था, और बैंक समस्याओं से ग्रस्त होते थे....
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सार्वजनिक निवेश के बल पर टिकी विकास की रणनीति को वैश्विक मुद्रास्फीति से ख़तरा है
-द वायर, वर्ष 2022-23 के केंद्रीय बजट को पिछले आठ वर्षों से ठहर से गए निजी क्षेत्र के निवेश में तेजी लाने की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आखिरी कोशिश के तौर पर देखा जा सकता है. प्रधानमंत्री के तौर पर मोदी का कार्यकाल लगभग एक दशक पूरा करने की ओर बढ़ रहा है. उन्हें यह चिंता अवश्य सता रही होगी कि आय, निजी निवेश, रोजगार, बचत ओर पूंजी निर्माण जैसे विभिन्न अहम...
More »पूंजीवाद और लोकतंत्र के ऐतिहासिक रिश्तों के आईने में संवैधानिक मूल्यों की परख
-जनपथ, प्रस्तुत लेख पॉपुलर एजुकेशन एंड ऐक्शन सेंटर (पीस), दिल्ली द्वारा बीते वर्ष अक्टूबर में संवैधानिक मूल्यों पर शुरू की गयी एक फैलोशिप के तहत चलाए गए अभिमुखीकरण सत्र में दिए गए पहले ऑनलाइन व्याख्यान का संपादित रूप है। पीस के मुख्य कार्यकारी और प्रशिक्षक अनिल चौधरी ने सामाजिक-आर्थिक न्याय, पत्रकारिता और कला व संस्कृति के फैलोज़ को इस व्याख्यान में संबोधित किया था। संपादक गाँधी जी ने दक्षिण अफ्रीका में रहते हुए...
More »पूंजीवाद के अंतर्गत वित्तीय बाज़ारों के लिए बैंक का निजीकरण हितकर नहीं
-न्यूजक्लिक, प्रख्यात अर्थशास्त्री, जॉन मेनार्ड केन्स के सबसे महत्वपूर्ण तर्कों में से एक यह था कि पूंजीवाद के अंतर्गत वित्तीय बाजारों का संचालन, गहराई तक त्रुटिपूर्ण होता है। इस तरह के बाजार अंतर्निहित रूप से एक ओर ‘उद्यम’ और दूसरी ओर ‘सट्टे’ में भेद कर पाने में ही असमर्थ होते हैं। याद रहे कि उद्यम वह होता है जिसमें किसी परिसंपत्ति को उसका स्वामी अपने पास इसलिए रखता है ताकि वक्त...
More »जीरो बजट खेती वह रोमांटिक गाना है, जिसे किसान चाह कर भी गा नहीं सकते
-द प्रिंट, जीरो बजट खेती का मूल मंत्र यह है कि यदि किसान अपने ही खेत में मेहनत कर रहा है तो उसकी दैनिक मजदूरी का कोई मूल्य नहीं है. प्रत्यक्ष रूप से तो उसे वैसे भी कुछ नहीं मिलता लेकिन जीरो बजट में सरकार कागज पर भी इसे जीरो ही मानेगी. नीति आयोग में बैठे नीति नियंता देश के किसान के बारे में उससे भी ज्यादा जानते हैं और यही तथ्य...
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