विगत दिनों दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में हुई घटना ने न केवल एक बड़ी बहस को जन्म दिया, बल्कि कुछ छद्म नायकों का भी सृजन किया. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ में देश-विरोध और विभाजन के स्वर उठे. बहस बजाय इस पर होने के कि ऐसी आवाजें क्यों उठीं और इनके पीछे क्या मंतव्य है, बहस का दायरा दोषी कौन है और कौन नहीं पर सिमट गया. जिस आजादी...
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प्रतीकों के पीछे छुपे हुए अर्थ - मृणाल पांडे
आज जब देशभक्ति पर तर्कशील विमर्श असंभव होता जा रहा है और भावुकता दिमागों पर हावी है, ऐसे में राष्ट्र को एक मातृदेवी का रूप देने की तर्कसंगत व्याख्या सामयिक है। संविधान के तहत धर्मनिरपेक्ष घोषित देश में राष्ट्रभक्ति को भारतमाता की देवीस्वरूपा प्रतिमा की तरह जयकारे बुलवाने और प्रणाम करने की जिद पर गौर करना चाहिए, जो बहुलतामय भारत के राज-समाज में प्रभु के विभिन्न् स्वरूपों को मानने वालों...
More »उच्च शिक्षा में बढ़ती खाई-- शैलेन्द्र चौहान
भारत सरकार ने विश्वविद्यालय में शिक्षा हासिल करने वाले शिक्षार्थियों की संख्या 2030 तक बढ़ा कर तीस प्रतिशत करने का लक्ष्य तय कर रखा है। जबकि भारत में सिर्फ बारह प्रतिशत लोगों को ही विश्वविद्यालयों में प्रवेश मिल पाता है। वर्तमान में भारत में दूरस्थ शिक्षा (डिस्टेंस लर्निंग) यानी घर बैठे पढ़ाई करने वालों की तादाद पैंतीस लाख है। चिंताजनक बात यह कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने छात्रों और...
More »फिर भारत की खोज-- कुमार प्रशांत
हम खोजते उसे हैं, जिसकी जरूरत तो लगती है, पर वह हमारे पास होती नहीं है; या जो कभी मिली थी और अब खो गई है। भारत के साथ दोनों स्थितियां हैं। दार्शनिक जद्दू कृष्णमूर्ति से कभी किसी ने भारत की खोज करने की ऐसी ही बात की थी, तो उन्होंने पलट कर पूछा था : क्या तुम्हें कहीं कोई भारत मिला? क्या तुमने कहीं भारत की विशालता जितना बड़ा...
More »उपलब्धियां बेमिसाल, फिर भी बाकी हैं सवाल- राजकुमार सिंह
आज हमारा गणतंत्र 66 साल का हो गया। लंबी गुलामी के बाद संघर्ष से मिली आजादी में गणतंत्र का यह सफर आसान हरगिज नहीं रहा। आजादी के साथ ही आयी विभाजन की विभीषिका से उबर कर भारत ने गणतंत्र की राह सोच-समझ कर ही चुनी थी। फिर भी अगर सफर आसान और परिणाम वांछित नहीं रहे, तो कारण विरासत में मिली जटिलताओं के साथ ही नीति-निर्धारण में दोष का भी...
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