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क्या गरीबी एक राजनीतिक पूंजी है? - विजय संघवी

भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने हाल ही में कहा कि भारत में गरीबी कायम रखने में कांग्रेस का योगदान था, क्योंकि गरीबों को वे वोटबैंक की तरह मानते थे। शाह ने जो कहा, वह एक राजनीतिक आम धारणा भी है। लेकिन इस कथन की विस्तार से पड़ताल करने के लिए हमें इसके विभिन्न् परिप्रेक्ष्यों को ठीक से समझना होगा। जॉन राल्स्टन सॉल ने तीन तरह के छवि-निर्माताओं की तस्दीक की है।...

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जो बन गए गरीब और बेसहारों के मसीहा

मनीष पाराशर, इंदौर। ज्यादातर लोग या तो अपने लिए काम करते हैं या परिवार के लिए। इस भाग-दौड़ भरी जिंदगी में कुछ लोग ऐसे भी हैं, जिन्होंने दूसरों की जिंदगी भी संवारने का जिम्मा उठा रखा है। ये कोई धनवान नहीं, बल्कि दिनभर रोड पर चलने वाले ऑटो ड्राइवर हैं। कोई बच्चों के लिए चलती-फिरती संस्कार की पाठशाला चलाता है तो कोई बेसहारा बुजुर्गों की मदद के लिए हमेशा तैयार...

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आदिवासी अस्मिता का सवाल-- डा. अनुज लुगुन

आज दुनिया की कई भाषाएं मरने के कगार पर इसलिए खड़ी हैं, क्योंकि वैश्विक दुनिया के मानकों के अनुसार वे लाभकारी नहीं हैं. वैश्वीकरण के मुनाफे की इस प्रवृत्ति ने भाषाओं के बीच जो दूरी पैदा की है, वह पहले कभी नहीं थी. पहले भी भाषाएं मरती रही हैं, लेकिन उसके कारण के रूप में मुनाफे वाली मानसिकता नहीं रही है. भाषाओं का यह संकट सामान्य रूप से भी...

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छद्म नायकों के इस दौर में-- अनुपम त्रिवेदी

विगत दिनों दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में हुई घटना ने न केवल एक बड़ी बहस को जन्म दिया, बल्कि कुछ छद्म नायकों का भी सृजन किया. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ में देश-विरोध और विभाजन के स्वर उठे. बहस बजाय इस पर होने के कि ऐसी आवाजें क्यों उठीं और इनके पीछे क्या मंतव्य है, बहस का दायरा दोषी कौन है और कौन नहीं पर सिमट गया. जिस आजादी...

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हिंदुत्व के रथ का पांचवां पहिया- नीलांजन मुखोपाध्याय

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) से संबंधित विवाद को करीब डेढ़ महीने हो गए हैं और अब यह शुरू में जिन मुद्दों से संबंधित था, उससे व्यापक मुद्दों से जुड़ गया है। इस विवाद ने राष्ट्रीय आयाम हासिल कर लिया है और इसके शांत होने के लक्षण नहीं दिख रहे। सरकार और सत्तारूढ़ भाजपा ने अपने राजनीतिक हमलों को व्यापक बनाने के लिए इस अवसर का उपयोग किया और छद्म धर्मनिरपेक्षता...

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