हर साल देश में करीब पचास हजार करोड़ रुपए का अनाज बर्बाद हो जाता है। एक ऐसे देश में जहां करोड़ों की आबादी को दो जून ठीक से खाना नहीं नसीब होता, वहां इतनी मात्रा में अनाजों की बर्बादी किस तरह की कहानी कहती है? इसकी पड़ताल कर रहे हैं रविशंकर। यह विडंबना नहीं, उसकी पराकाष्ठा है कि सरकार किसानों से खरीदे गए अनाज को खुले में छोड़कर अपना कर्तव्य पूरा...
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नगदी हस्तांतरण और बचत का गणित-- धर्मेंन्द्रपाल सिंह
घरेलू गैस पर मिलने वाली सब्सिडी का पैसा उपभोक्ता के खाते में सीधा हस्तांतरित (डीबीटी) करने संबंधी योजना की सफलता से उत्साहित सरकार ने अब सार्वजनिक वितरण प्रणाली को भी इसकी जद में लाने का मन बना लिया है। केंद्र ने सभी राज्य सरकारों से कहा है कि इस साल के अंत तक यह काम शुरू हो जाना चाहिए। रसोई गैस पर डीबीटी नवंबर 2014 से ही लागू है। सरकार 14.19...
More »हमारी संवेदना का अकाल-- योगेन्द्र यादव
अकेले नहीं आता अकाल. पानी, प्रकृति और समाज के देशज चिंतक अनुपम मिश्र के लेख का यह शीर्षक अपने आप में बहुत कुछ कह जाता है. कुदरत सूखा देती है, अकाल नहीं. हर चौथे-पांचवें साल हमारे देश में बारिश की कमी होती है. लेकिन जरूरी नहीं कि इससे अन्न की कमी हो, पीने के पानी का संकट हो, इंसानों और मवेशियों की जान पर बन आये, खेती-किसानी से जुड़े हर...
More »दूसरी हरित क्रांति एक और भ्रांति-- योगेन्द्र यादव
हमारे प्रधानमंत्री को जुमलों का शौक है. खासतौर पर उधार के जुमलों का. इस बार उन्होंने ‘दूसरी हरित क्रांति’ का आह्वान किया है. हजारीबाग के निकट बरही में 28 जून को भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान का उद्घाटन करते हुए प्रधानमंत्री ने ‘पर ड्रॉप मोर क्रॉप’ (हर बूंद से ज्यादा दाने पैदावार) का नारा दिया. नारों में कुछ बुराई नहीं है, बशर्ते उनके पीछे कोई नयी सोच हो, नीति हो या नीयत...
More »खाली हैं अन्न उपजाने वाले हाथ- देविन्दर शर्मा
कृषि मोर्चे पर एक नया संकट आ गया है। सर्वोच्च न्यायालय में केंद्र सरकार द्वारा किसानों को फसल उत्पादन की कुल लागत पर 50 प्रतिशत लाभ देने में असमर्थता जताने के बाद तलवारें खिंच गई हैं। मार्च के मध्य से ही कई किसान संगठन इस मुद्दे पर केंद्र सरकार का विरोध कर रहे हैं। उन्हें लग रहा है कि उनके साथ विश्वासघात हुआ है। वाकई लोकसभा चुनाव के दौरान ही...
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