नौजवानों के लिए इससे बड़ी त्रासदी क्या हो सकती है कि जब वह शारीरिक और मानसिक रूप से तैयार होकर उत्पादन के क्षेत्र में उतरने को तत्पर होता है, तब उससे कह दिया जाता है कि उसकी आवश्यकता नहीं है। ऐसे में उसका खुद पर गुस्सा लाजिमी है कि उसने अपने परिवार के संसाधनों का इस्तेमाल खुद को राष्ट्रीय उत्पादन में योगदान करने लायक बनाने के लिए व्यर्थ किया। मां-बाप...
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वही कहो, जो दीदी कहें - चंदन श्रीवास्तव
पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की जीत और कोलकाता में ममता बनर्जी की ताजपोशी के महज एक साल के भीतर कोलकाता में ममता बनर्जी को लेकर सोच का पहिया उलटी दिशा में घूम गया है. पिछले साल के मई तक जो बुद्धिजीवी आंदोलनधर्मी दीदी के साथ थे, उन्हें साल पूरा होते-होते लग रहा है कि गद्दी पर बैठी ममता बनर्जी की रीति-नीति के साथ खड़ा होना मुश्किल है. फिलहाल कोलकाता में आंदोलनधर्मी...
More »विज्ञान का लोकतांत्रिक चेहरा- वंदना शिवा
हाल ही में साइंस पत्रिका को दिए एक इंटरव्यू में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने बताया था कि देश में विज्ञान के विकास के लिए दो तकनीकों पर ध्यान देना जरूरी है- पहला कृषि में जीई (जेनेटिक इंजीनियरिंग) बीज और फसल का उपयोग तथा दूसरा परमाणु ऊर्जा। दुर्भाग्य से, हमारी अर्थव्यवस्था की उन्नति के लिए ये दोनों ही तकनीकें खतरनाक हैं। तब प्रधानमंत्री ने गैरसरकारी संगठनों पर भी उंगली उठाते हुए कहा...
More »भूमंडलीकरण का शब्दजाल- सुनील
साहित्य में कबीर की उलटबांसियां प्रसिद्ध हैं। गहरे से गहरे दार्शनिक रहस्यों को बताने के लिए कबीर जीवन के कुछ ऐसे विरोधाभासों का सहारा लेते हैं, जिनमें ऊपर से कुछ और दिखाई देता है, किंतु अंदर कुछ और होता है। वैश्वीकरण के साथ ही दुनिया में एक नई शब्दावली आई है, जो कुछ-कुछ उलटबांसियां जैसी ही हैं। जैसे वैश्वीकरण, भूमंडलीकरण, जगतीकरण या जागतिकीकरण को ही लें, जो ग्लोबलाइजेशन के विविध...
More »बढ़ती बेरोजगारी के बीच- गिरीश मिश्र
नौजवानों के लिए इससे बड़ी त्रासदी क्या हो सकती है कि जब वह शारीरिक और मानसिक रूप से तैयार होकर उत्पादन के क्षेत्र में उतरने को तत्पर होता है, तब उससे कह दिया जाता है कि उसकी आवश्यकता नहीं है। ऐसे में उसका खुद पर गुस्सा लाजिमी है कि उसने अपने परिवार के संसाधनों का इस्तेमाल खुद को राष्ट्रीय उत्पादन में योगदान करने लायक बनाने के लिए व्यर्थ किया। मां-बाप...
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