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भ्रष्टाचार के रास्ते- कुमार प्रशांत

जनसत्ता 13 दिसंबर, 2011:  जयप्रकाश नारायण ने 1974 में, जब वे कई सारे सवालों के साथ-साथ भ्रष्टाचार का भी सवाल उठा कर सारे देश में आंदोलन खड़ा करने में लगे थे, एक गहरा और मार्मिक लेख लिखा था। इसका शीर्षक था:‘क्या नैतिक ताने-बाने के बिना भी कोई देश बना रह सकता है?’ इसमें उन्होंने मुख्य रूप से दो बातें कही थीं। एक,भ्रष्टाचार ऊपर से नीचे की तरफ चलता है। सत्ता-संपत्ति-अधिकार...

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एक अनूठा सत्याग्रह- गिरिराज किशोर

जनसत्ता, 10 दिसंबर,2011: कुछ घटनाएं महत्त्वपूर्ण होती हैं, पर सरकार और कई बार समाज भी उनका उतना संज्ञान नहीं लेता जितना लिया जाना चाहिए। अगर किसी घटना को नजरअंदाज करने से काम चल सकता है तो लोग सोचते हैं कि चला लेना ज्यादा सुविधाजनक है। भले ही देश या समाज को कितना भी आघात क्यों न पहुंचे। मणिपुर हमारे देश के पूर्वोत्तर का महत्त्वपूर्ण प्रदेश है। जब मैं वहां गया...

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खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश के खतरे- शरद यादव

 खुदरा व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की इजाजत का निर्णय केंद्र सरकार ने ऐसे समय किया जिस समय वह मूल्यवृद्धि और काले धन पर संसद में घिरी हुई थी। इसके साथ ही उसने विपक्ष के साथ टकराव का एक और मोर्चा खोल दिया है। उसके इस निर्णय की दो व्याख्याएं हो सकती हैं। पहली यह है कि केंद्र सरकार चाहती ही नहीं कि संसद सही तरीके से चले और वह टकराव...

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मीडिया और पूंजी का स्वर्णमृग : मृणाल पाण्डे

एक बेहतरीन संपादक सेना के कमांडर की तरह होता है। उसकी नियुक्ति भले ही उसके चमत्कृत करने वाले निजी कौशल से संभव हुई हो, पर उसके बाद उसकी निजी बौद्धिक क्षमता से कहीं अधिक महत्व उसकी कुशल रणनीति और सैन्य-संचालन क्षमता का बन जाता है। हमारे संविधान ने सभी नागरिकों को अभिव्यक्ति की आजादी का समान हक दिया है, जिनमें मीडियाकर्मी भी शामिल हैं। उनके लिए (अमेरिका की तरह) अतिरिक्त आजादी का...

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महंगाई के पीछे गलत नीतियां- सी पी राय

समूचा देश आज महंगाई की समस्या से परेशान है। लेकिन सारी महंगाई अंतरराष्ट्रीय कारणों से नहीं है, जैसा कि सरकारी पक्ष बताता आ रहा है। साफ है कि 120 करोड़ से ज्यादा की आबादी वाला यह देश सेंसेक्स और कुछेक लोगों को समृद्ध करने वाली नीतियों से नहीं चल सकता। कुछ तो है, जिसे हमारे तथाकथित अर्थशास्त्री नहीं समझ पा रहे हैं या नहीं समझने का नाटक कर रहे हैं या...

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