पिछले दिनों इसी पृष्ठ पर 'दलों की निजता और आरटीआई" शीर्षक से प्रकाशित लेख पढ़ने से ऐसा लगता है कि लेखक राजनीतिक दलों को सूचना के अधिकार कानून (आरटीआई) के दायरे में लाने के पक्ष में नहीं हैं, लेकिन लेख में निम्नलिखित वाक्य भी पढ़ने को मिलते हैं - 'जवाबदेही और पारदर्शिता जनतंत्र के मूल आधार हैं; धन संग्रह की पारदर्शिता अनुचित मांग नहीं है; बेशक दल संचालन को भी...
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गांवों की अनदेखी से विकास असंभव- उमेश चतुर्वेदी
उदारवादी अर्थव्यवस्था के इस दौर में भी भारतीय अर्थव्यवस्था यदि खेती-किसानी और उसके जरिये जीने वाले गांवों पर टिकी हुई है, तो मान लेना होगा कि हजारों वर्षों से चली आ रही भारतीयता की परंपरा अब भी बनी हुई है। आर्थिक नीतियों की कामयाबी और नाकामी का पैमाना अब अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियों फिच और मूडी की रिपोर्टों और उनके आकलन के आधार पर तय होता है। हाल ही में मूडी...
More »कितना काला है काला धन?- प्रीतीश नंदी
आखिरकार कोई तो बुद्धिमानी से बोला। अब तक तो हमने काले धन को लेकर हर किसी को आक्रोश व्यक्त करते हुए ही देखा, लेकिन किसी ने व्यावहारिक समाधान नहीं सुझाया। बोफोर्स घोटाले से इसकी शुरुआत हुई थी और उसके कारण राजीव सरकार को सत्ता से बेदखल होना पड़ा। फिर तो हर किसी को यह समझ में आ गया कि काला धन राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी की प्रतिष्ठा को खत्म करने का एकदम...
More »कहां है सुधारों की अगली खेप-- रामचंद्र गुहा
सन 2009 के आम चुनाव के ठीक बाद मैंने बेंगलुरु में एक भाषण सुना, जो नई सरकार के लिए नीतियों के नए रोडमैप पर था। वक्ता थे राकेश मोहन, जो उद्योग व वित्त मंत्रालय में वरिष्ठ पदों पर रह चुके थे और उस वक्त रिजर्व बैंक के डिप्टी गवर्नर थे। राकेश मोहन का कहना था कि आर्थिक सुधारों की पहली लहर ने व्यापार को सरकारी नियंत्रण से बाहर निकाला और...
More »मजहबी तालीम से आगे बढ़ें मदरसे - तुफैल अहमद
पिछले दशकों के आंकड़े गवाह हैं कि मदरसों में पढ़ने वाले भारतीय मुसलमान भौतिकशास्त्री, अर्थशास्त्री, चार्टर्ड एकाउंटेंट, सॉफ्टवेयर इंजीनियर, डॉक्टर और यहां तक कि राजनीतिज्ञ भी नहीं बन पाते। मदरसे मुस्लिमों को सार्वजनिक जीवन से बाहर रखने के कारक बन जाते हैं। हां, कुछ मदरसों के छात्र आधुनिक पेशे में प्रवेश पा लेते हैं, लेकिन इसमें मदरसों की भूमिका नहीं है, बल्कि यह उनका व्यक्तिगत सद्प्रयास है। इस बात के भी...
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