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एक शताब्दी पहले के मुजारा आंदोलन में अपनी जड़े तलाशता मौजूदा किसान आंदोलन

-कारवां, “मुजारों ने बिस्वेदरी प्रणाली के खिलाफ लड़ाई लड़ी. मौजूदा आंदोलन कारपोरेट पूंजीवाद के खिलाफ है,'' पंजाब के मनसा जिले के बीर खुर्द के किसान किरपाल सिंह बीर ने मुझे बताया. 1920 के दशक में जब पंजाब का बंटवारा नहीं हुआ था, पट्टेदार किसानों ने राजाओं, जमींदारों और ब्रिटिश अधिकारियों से भूमि स्वामित्व अधिकार के लिए आंदोलन किया था. उस आंदोलन को मुजारा आंदोलन के नाम से जाना जाता था. किरपाल...

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न्याय की चौखट पर न अटके विकास - डॉ. भरत झुनझुनवाला

हर वर्ष बजट की पूर्वसंध्या पर केंद्र सरकार की ओर से आर्थिक सर्वेक्षण जारी किया जाता है। इस रपट में बीते वर्ष का लेखा-जोखा दिया जाता है। इस वर्ष के सर्वेक्षण में आर्थिक विकास पर न्यायपालिका के प्रभाव को भी बताया गया। इसमें कहा गया कि विकास की तमाम योजनाओं पर कोर्ट ने स्टे दे रखा है, जिसके कारण वे रुकी पड़ी हैं। इन स्टे के कारण 52,000 करोड़ की...

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औपनिवेशिक दंश झेलती जनजातियां-- प्रमोद मीणा

वर्ष 1871 में औपनिवेशिक भारत में ब्रिटिश सरकार ने भारत की कुछ खानाबदोश और अर्द्ध खानाबदोश जनजातियों को आपराधिक जनजाति अधिनियम (क्रिमिनल ट्राइबल एक्ट) पारित करके जन्मजात अपराधी घोषित कर दिया। मुख्यधारा के समाजों से दूर रहने वाली इन जनजातियों को पुश्तैनी रूप से अपराधी मानते हुए उन्हें गैर-जमानती अपराध के दायरे में ला दिया गया। इन जनजातीय समुदायों में थे बावरिया, पारधी, कंजर, सांसी, बंजारा, गरासिया, सहरिया आदि। ये...

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गोरखालैंड की सियासत-- रशीद किदवई

दार्जीलिंग की सड़कों पर अंगरेजी और नेपाली में लगाये जा रहे हैं- 'वी वांट गोरखालैंड. गोरखालैंड-गोरखालैंड. गोरखालैंड चाहिन छ. चाहिन छ-चाहिन छ. हामरौ मांग गोरखालैंड.' इन्हीं नारों के बीच पश्चिम बंगाल इन दिनों गोरखालैंड की आग में जल रहा है. दरअसल, इस हिंसा और आगजनी के पीछे भाषाई राज्य की कल्पना है जिसने एक आंदोलन का रूप ले लिया है. पिछले सौ वर्षों से जारी गोरखालैंड की मांग को खुद...

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प्रवीर चंद्र भंजदेव : अा‌‌दिवासी आंदोलन- पवन वर्मा

आदिवासियों की दशा समझने और सुधारने के लिए आजादी के बाद कई समितियां बनी हैं इनमें पहली मानवशास्त्री वेरियर एल्विन की अध्क्षता में बनी थी. और पहला आयोग कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष यूएन धेबर की अध्यक्षता में 1960 में बना. लेकिन शुरुआत में ही ये प्रयास खोखले साबित होने लगे. इसका नतीजा यह रहा कि 1960-70 के दशक के दौरान बस्तर में आदिवासी आंदोलन में भारी उभार देखा गया. इसका नेतृत्व बस्तर...

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