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सशक्तीकरण | विस्थापन
विस्थापन

विस्थापन

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वाणिज्य मंत्रालय की स्थायी संसदीय समिति द्वारा उठाए गए मुद्दे

1- सरकार के पिछले कार्यकाल के दौरान वाणिज्य मंत्रालय संबंधी स्थायी संसदीय समिति ने ‘सेज की कार्यप्रणाली’ पर अपनी 83वीं रिपोर्ट संसद को 20 जून 2007 को सौंपी।
2- जो सबसे महत्त्वपूर्ण सिफारिश इस समिति ने की, वह थी ‘ठहरने और विचार करने’ की।
3- सभी हलकों से आशंकाएं जताए जाने के बावजूद बोर्ड ऑफ एप्रूवल ने जिस तेज रफ्तार से हरी झंडी दी है, उस पर रिपोर्ट में साफ शब्दों में चिंता जताई गई।
4- 83वीं रिपोर्ट जारी होने के वक्त बोर्ड ऑफ एप्रूवल द्वारा 152 औपचारिक स्वीकृतियां और 82 अधिसूचनाएं जारी कर दी गई थीं। संसदीय स्थायी समिति ने वाणिज्य मंत्रालय की इस बात के लिए आलोचना की कि इन स्वीकृतियों को रोके रखने की कोई कोशिश नहीं की गई, जबकि समिति ने संशोधन लागू होने तक ऐसा करने की सिफारिश की थी।
5- राज्यसभा में कार्रवाई रिपोर्ट (एटीआर) पेश होने तक मंजूरी पा चुके सेज की संख्या 500 पार कर चुकी थी। वाणिज्य मंत्रालय ने तब सिर्फ यह कहा कि वह सेज के कार्य-प्रदर्शन और प्रभावों का ‘वैज्ञानिक मूल्याकंन’ करवाने की प्रक्रिया में है।
6- सबसे अहम बात यह कि रिपोर्ट में बड़े आकार के सेज की स्थापना की वजह से विस्थापितों की संख्या में बढ़ोतरी और कई मामलों में इससे संबंधित अटकलों की आलोचना की गई।
7- संसदीय स्थायी समिति की कुछ अन्य सिफारिशों को एटीआर में वाणिज्य मंत्रालय ने नामंजूर कर दिया। उनमें शामिल हैं-
- सेज के संतुलित क्षेत्रीय विकास के लिए हर क्षेत्र में सेज की संख्या की सीमा तय की जाए।
- निर्यात के लिए वित्तीय प्रोत्साहन से संबंधित अनावश्यक सामाजिक बुनियादी ढांचे पर प्रतिबंध।
- सेज में कर छूट एसटीपी और ईओयू की तरह ही है- तो फिर सेज की जरूरत क्या है?
- श्रम आयुक्त के अधिकारों को विकास आयुक्त को सौंपे जाने पर पुनर्विचार।


11 अक्टूबर 2007 को केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय पुनर्वास नीति-2007 घोषित की। इस नीति ने परियोजना प्रभावित परिवारों के पुनर्वास की राष्ट्रीय नीति- 2003 की जगह ली।
नई नीति में विस्थापन की प्रक्रिया के परीक्षण का कोई प्रावधान नहीं है। इसमें मान कर चला गया है कि विस्थापन तो होना ही है। नीति के प्रारूप में विस्थापन की आवश्यकता पर सवाल उठाने की कोई कोशिश नहीं की गई है। ना ही इसमें बिना विस्थापन या न्यूनतम विस्थापन वाले विकल्पों की तलाश या उसे प्रोत्साहित करने की कोई कोशिश है।

नई नीति लाने का समय और इसके पीछे का इरादा भी संदिग्ध है। गौरतलब है कि यह नीति पुराने पड़ चुके भूमि अधिग्रहण कानून 1894 में संशोधन की घोषणा के साथ लाई  गई।

भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन के साथ ‘सार्वजनिक उद्देश्य' को फिर से परिभाषित करने की कोशिश असल में गरीबों और हाशिये पर लोगों के ऊपर निजी और बड़ी कंपनियों के हितों को तरजीह देने का हिस्सा है।

2007 की नीति के तहत बड़ी कंपनियों और रणनीतिक एवं सार्वजनिक बुनियादी ढांचा परियोजनाओं के लिए जमीन का अधिग्रहण आसान हो गया है।   

‘सार्वजनिक उद्देश्य' की फिर से परिभाषा इस तरह की गई है कि राज्य सरकारों के लिए किसी निजी कंपनी, व्यक्तियों के संघ या संस्था के लिए जमीन के अधिग्रहण की इजाजत मिल जाती है, बशर्ते वह 'आम जन के हित' में हो।

2007 की नीति में 'जमीन के बदले जमीन' देने का सिद्धांत अस्पष्ट है। इसमें जमीन देने का प्रावधान तो किया गया है, लेकिन ऐसा उसी हद तक किया जाएगा, जितनी ‘सरकारी जमीन पुनर्वास क्षेत्र में उपलब्ध’ होगी।

नीति में प्रभावित लोगों को कई लाभ देने की बातें शामिल है, मसलन- उन परिवारों के योग्य लोगों को शिक्षा के लिए वजीफा, परियोजना स्थल के आसपास ठेके और अन्य आर्थिक गतिविधियों में काम देने में प्रभावित लोगों के सहकारी समूहों को प्राथमिकता, ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में प्रभावित भूमिहीन परिवारों को आवास देना, परियोजना स्थल पर निर्माण कार्यों में इच्छुक प्रभावित लोगों को वेतन आधारित रोजगार, आदि। लेकिन हर पारिवारिक इकाई के एक व्यक्ति के लिए ‘रोजगार की गारंटी' रिक्त स्थानों की ‘उपलब्धता' और ‘प्रभावित व्यक्ति की योग्यता' पर निर्भर करेगी। गौरतलब है कि अधिकारी और नीति निर्माता ‘अगर उपलब्ध हुआ' और ‘यथासंभव' जैसी शर्तों का इस्तेमाल अपनी जिम्मेदारी से मुकरने के लिए व्यापक रूप से करते हैं।

नई नीति में परियोजना का सामाजिक प्रभाव मूल्याकंन करना अनिवार्य कर दिया गया है, लेकिन सिर्फ उन्हीं स्थितियों में जब मैदानी इलाकों में 400 और आदिवासी, पहाड़ी एवं अनुसूचित क्षेत्रों में 200 परिवार प्रभावित हो रहे हों। सवाल यह है कि आखिर ऐसा मूल्यांकन सिर्फ उन्हीं स्थितियों में क्यों अनिवार्य होना चाहिए, जब एक पहले से तय संख्या में परिवार प्रभावित हो रहे हों?

2007 की नीति में ये प्रवाधान भी हैं- भूमि अधिग्रहण मुआवजा निपटारा प्राधिकरण की स्थापना (स्थानीय स्तर पर, जो आम सिविल अदालतों से अलग होगा और जो मुआवजा विवाद से संबंधित मामलों को फुर्ती से निपटाने में सहायक होगा), जिला स्तर पर एक स्थायी राहत एवं पुनर्वास प्राधिकार का गठन, राज्य स्तर पर एक निर्णायक की नियुक्ति (किसी परियोजना के तहत पुनर्वास पर निगरानी के लिए), एक राष्ट्रीय निगरानी कमेटी और एक राष्ट्रीय निगरानी प्रकोष्ठ की स्थापना (पुनर्वास योजनाओं पर प्रभावी अमल की निगरानी के लिए, राज्य सरकारों को इस प्रकोष्ठ को सूचना देनी होगी), और एक राष्ट्रीय पुनर्वास आयोग (जिसे प्रभावित परिवारों के पुनर्वास की स्वतंत्र निगरानी का अधिकार होगा)। भूमि अधिग्रहण क्षतिपूर्ति निपटारा प्राधिकरण द्वारा दिए गए फैसले से नाखुश लोग हाई कोर्ट या उससे ऊपर न्यायपालिका में अपील कर सकेंगे। लेकिन इस नीति में इस महत्त्वपूर्ण प्रश्न का कोई उत्तर नहीं है कि अगर अपर्याप्त मुआवजा संबंधी कोई गड़बड़ी पाई गई, तो क्या इन समितियों और आयोगों को परियोजना पर काम रोक देने का अधिकार होगा?
किसी परियोजना पर काम शुरू होने के पहले पुनर्वास अधिकारों पर अमल को जरूर सुनिश्चित किया जाना चाहिए। अगर दोषपूर्ण या अपर्याप्त पुनर्वास हो तो परियोजना पर काम रोक दिया जाना चाहिए और उसके लिए परियोजना को लागू कर रहे विभाग/ कंपनी को जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए। राष्ट्रीय पुनर्वास नीति 2007 में इन मुद्दों को हल नहीं किया गया है, ना ही परियोजना के लाभों पर विस्तापित लोगों के ‘प्रथम अधिकार' के सिद्धांत को मान्यता दी गई है।

राष्ट्रीय पुनर्वास नीति के सकारात्मक पक्ष  

इस नीति में यह एक महत्त्वपूर्ण घोषणा की गई है कि अगर जमीन अधिग्रहण के पांच साल के अंदर संबंधित परियोजना पर काम शुरू नहीं होता है तो सरकार द्वारा अधिग्रहीत की गई जमीन सरकार के पास वापस चली आएगी। चूंकि अक्सर जितनी जरूरत होती है, उससे ज्यादा जमीन का अधिग्रहण होता है और बाद में उसे डेवलपर्स को अन्यत्र उद्देश्यों, मसलन होटल, पार्क, गोल्फ कोर्स आदि बनाने के लिए दे दिया जाता है, यह नई धारा एक सकारात्मक कदम है।
नई नीति में एक दूसरी अच्छी बात यह प्रावधान है कि अगर परियोजना पर काम शुरू होने के बाद जमीन बेची जाती है, तो उससे होने वाले कुल मुनाफे का 80% जमीन के मूल मालिक को जाएगा। साथ ही ‘सार्वजनिक उद्देश्य' के लिए अधिग्रहीत जमीन का किसी दूसरे मकसद के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सकेगा।

 


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