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चर्चा में.... | खाद्य सुरक्षा बिल- कुछ बुनियादी बातें

खाद्य सुरक्षा बिल- कुछ बुनियादी बातें

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published Published on Mar 13, 2013   modified Modified on May 1, 2013

संसद के मौजूदा(बजट) सत्र में आखिरकार खाद्य सुरक्षा बिल पर चर्चा होने जा रही है। यह बिल यूपीए सरकार ने साल 2011 में लोकसभा में पेश किया था। आहार और बाल-स्वास्थ्य के मुद्दे पर काम करने वाले विभिन्न संगठनों, स्वयंसेवी संस्थाओं और राज्यों द्वारा प्रस्तुत विविध आलोचनाओं के आलोक में इस बिल में कई और बदलाव किए जाने की संभावना है।यहां प्रस्तुत सामग्री में कोशिश की गई है कि भोजन का अधिकार बिल के बारे में जानकारी क्या-क्यों-कैसे-कौन के कोने से प्रस्तुत प्रश्नोत्तरी शैली में दी जाय ताकि यह जानकारी मीडियाकर्मियों के लिए उपयोगी साबित हो सके। गौरतलब है कि प्रस्तुत की जा रही सामग्री के हर खंड के अंत में कुछ लिंक दिए गए हैं। ये लिंक विविध दस्तावेजों, रिपोर्ट और अखबारों के हैं। इन लिंक्स को चटकाने पर संबंधित खंड के बारे में विस्तार से जानकारी हासिल की जा सकती है।

क्या है आलोचना?

कुछ राज्य सरकारों ने कवरेज को लेकर अपनी आशंका जतायी है जबकि कई अन्य राज्यों का कहना है कि प्रस्तावित कानून के आलोक में जो खर्चे बढ़ेगे उसका जिम्मा केंद्र सरकार खुद उठाये, उन्हें राज्यों के ऊपर ना डाले। गैर-सरकारी संगठनों की मुख्य आलोचना यह है कि बिल में मौजूदा बाल-कुपोषण से निपटने के प्रावधानों को विधिक अधिकार में बदला जा सकता था जबकि सरकार ने ऐसा नहीं किया है। बिल को केंद्र में रखकर संसद की स्थायी समिति ने जो रिपोर्ट पेश की, उसकी आलोचना गैर-सरकारी संगठनों की तरफ से यह कहकर की जा रही है कि रिपोर्ट में समेकित बाल विकास कार्यक्रम के फायदों की अनदेखी की गई है। एक आलोचना यह भी है कि प्रस्तावित बिल में शिकायत-निवारण के लिए कोई सुस्पष्ट उपाय नहीं सुझाया गया है , ऐसे में अगर समाज के कमजोर तबके को बिल से मिले हक की अवहेलना होती है तो वे अपनी शिकायतों को लेकर कहां जायेंगे?

कौन है हकदार ?

राशन-वितरण की सरकारी व्यवस्था के भीतर देश की समूची आबादी को शामिल किया जाय या एक चिह्नित समूह को, दूसरे शब्दों में कहें तो पीडीएस व्यवस्था लक्षित हो या सार्विक- बिल के बारे में सर्वाधिक गहन बहस का मुद्दा यही है। पीडीएस व्यवस्था को सार्विक रखने के तरफदारों का तर्क है कि पीडीएस को सिर्फ लक्षित समूह के लिए रखने में कई किस्म की परेशानियां हैं। एक तो ऐसा करना अव्यावहारिक है क्योंकि गरीबी के आकलन के मानकों में समानता नहीं है, केंद्र सरकार गरीबों की संख्या कुछ बताती है, राज्य सरकारें कुछ और। दूसरे पीडीएस को लक्षित समूहों तक रखने का प्रावधान करने से कई जायज लाभार्थी इस दायरे में आने से रह जाते हैं। पीडीएस को सार्विक बनाने के तरफदार छत्तीसगढ़ और तमिलनाडु में चलायी जा रही सार्विक पीडीएस व्यवस्था की तरफ इशारा करके कहते हैं कि इससे एक तो खुद ब खुद ही यह तय हो जाता है कि जिसे राशन की जरुरत है वह राशन लेगा और जिसे सरकारी दुकानों से मिलने वाले राशन की जरुरत नहीं है वह नहीं लेगा, दूसरे इस व्यवस्था से कालाबाजारी की आशंका भी कम होती है।

जो पीडीएस व्यवस्था को लक्षित समूहों तक सीमित रखना चाहते हैं उनका तर्क है कि इस व्यवस्था को सार्विक करने से लागत बहुत ज्यादा आएगी। ऐसे लोगों की एक आशंका यह भी है कि पीडीएस व्यवस्था को सार्विक बनाने से खाद्यान्न का बाजार-भाव विकृतियों का शिकार होगा।

सरकार ने हाल में कहा है कि बिल में पहले 75 फीसदी ग्रामीण और 50 फीसदी शहरी आबादी को पीडीएस व्यवस्था के जरिए खाद्यान्न देने की बात कही गई है जिसे अब बदल दिया जाएगा और नये विधान के तहत प्रत्येक राज्य की 67 फीसदी आबादी को अनुदानित मूल्य पर राशन मुहैया कराया जाएगा। (इस दायरे में लाभार्थी के तौर पर कुछ लक्षित समूह भी होंगे जिन्हें और ज्यादा अनुदानित मूल्य पर खाद्यान्न मुहैया कराया जाएगा। पीडीएस के तहत अनुदानित मूल्य पर राशन हासिल करने वाली आबादी को पहचानने का मानक क्या होगा- सरकार की मानें तो इसे तय करने का काम अभी चल रहा है और अभी यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि सामाजिक-आर्थिक आधार पर की गई जाति-जनगणना के निष्कर्षों को किस तरीके से इस्तेमाल किया जाय कि कोई भी जरुरतमंद व्यक्ति या परिवार अनुदानित खाद्यान्न पाने से वंचित ना रह जाय।

बहरहाल बिल में ऐसे प्रावधान भी हैं जिनके तहत अगर कोई राज्य चाहे तो पीडीएस व्यवस्था को सार्विक बना सकता है या फिर उसे तुलनात्मक रुप से कहीं ज्यादा बड़ी आबादी के लिए सुलभ बना सकता है। छत्तीसगढ़ राज्य ने इस दिशा में पहले ही कदम उठाया है और यह कहते हुए कि केंद्र सरकार खाद्य सुरक्षा बिल को पारित करने में देरी कर रहा है, उसने अपना खाद्य सुरक्षा कानून पारित किया है।

हाल के राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के अध्ययनों में पाया गया कि साल 2004-05 की तुलना में उन राज्यों में पीडीएस व्यवस्था के अंतर्गत खरीदारी बढ़ी है जहां कुछ सुधार के उपाय किए गए हैं और पीडीएस का दायरा बढाया गया है। ऐसे राज्यों में छ्त्तीसगढ़ और तमिलनाडु का नाम लिया जा सकता है।

लिंक्स:
 
Confidentof passing food security Bill this session: Thomas- Ragini Verma and LizMathew, Live Mint, 22 February, 2013,
http://www.livemint.com/Politics/RPyZGwouWVSHKVtzNe2A8K/Conf
 
NSS 66thRound Report titled: Public Distribution System and Other Sources of HouseholdConsumption (July 2009-June 2010),
http://mospi.nic.in/Mospi_New/upload/nss_report_545.pdf
 
FoodSecurity Act: Should Centre emulate Chhattisgarh? -NO by MR Subramani, The HinduBusiness Line, 28 December, 2012,
http://www.thehindubusinessline.com/opinion/food-security-ac

कितनी आएगी लागत?

तकरीबन 6 करोड़ 50 लाख टन खाद्यान्न का उपार्जन करना होगा ताकि यह खाद्यान्न अनुदानित मूल्य पर दिया जा सके। इसका लागत-खर्च सरकार, स्वतंत्र संस्थाओं और शोधकर्ताओं द्वारा 1,12,205 करोड़ रुपये से लेकर 1,43,000 करोड़ तक बताया जा रहा है। जो लोग ज्यादा रकम बता रहे हैं वे लागत खर्च के भीतर खाद्यान्न की कालाबाजारी के मद में होने वाले अपव्यय या फिर समेकित बाल विकास कार्यक्रम के तहत होने वाले खर्चे को भी शामिल कर रहे हैं। (इस संदर्भ में गौरतलब है कि साल 2012 में भारत का रक्षा बजट 1,93,407 करोड़ रुपये का था। ) खाद्यान्न-उपार्जन की मात्रा और इसकी लागत का आकलन मौजूदा मांग के आधार पर आकलित की गई है। कालक्रम में मांग बढ़ने के साथ लागत-खर्च भी बढ़ेगा और आशंका जतायी जा रही है कि बढ़ता हुआ लागत-खर्च असह्य रुप से भारी हो सकता है।हाल में आधिकारिक तौर पर कहा गया है कि बिल को अमल में लाने पर सरकारी खजाने पर 1,20,000 करोड़ रुपये का भार बढ़ेगा। इसका अर्थ हुआ कि इस मद में 40000 करोड़ रुपये बढ़ाने होंगे।
 
योजना आयोग के उपाध्यक्ष के हालिया बयान से संकेत मिलते हैं सरकार आहार-सुरक्षा के मद में खर्च की जाने वाली रकम बढ़ाने का इरादा रखती है लेकिन उसका मानना है कि ऐसा करने के लिए ईंधन और उर्वरक पर दी जाने वाली सब्सिडी में कटौती करना होगा ताकि वित्तीय घाटा नहीं बढ़े।

लागत-खर्च से संबंधित आंकड़े को निम्नलिखित लिंक्स पर देखा जा सकता है:
 
Foodsubsidy bill: the larger picture-Rajiv Kumar and Soumya Kanti Ghosh, Seminar, http://www.india-seminar.com/2012/634/634_rajiv_kumar_&_
 
अन्य लिंक्स:
 
Confidentof passing food security Bill this session: Thomas- Ragini Verma and LizMathew, Live Mint, 22 February, 2013,
http://www.livemint.com/Politics/RPyZGwouWVSHKVtzNe2A8K/Conf
 
Report ofthe Expert Committee on National Food Security Bill
http://eac.gov.in/reports/rep_NFSB.pdf

कैसे होगा क्रियान्वयन?

सरकार ने कहा है कि पीडीएस के भीतर कालाबाजारी रोकने के लिए वह लाभार्थियों को मिलने वाली सब्सिडी नकदी के रुप में उनके बैंक खाते में हस्तांतरित कर देगी और यह हस्तांतरण आधार-कार्ड के सहारे होगा। (पीडीएस में कालाबाजारी का मुख्य जरिया फर्जी कार्ड के जरिए अनाज उठाना या फिर राशन-दुकानदारों द्वारा अनाज को चोरबाजार में बेच देना है। खाद्य एवं आपूर्ति से संबद्ध मंत्रालय के अनुसार पीडीएस के तहत साल 2004-05 में 37 फीसदी खाद्यान्न की कालाबाजारी हुई थी) अनाज के बदले नकदी देने एक बड़ी योजना का हिस्सा है। यूपीए सरकार इसे आपका पैसा-आपका हाथ के नारे से लागू करने का इरादा रखती है। आधिकारिक तौर पर कहा गया है कि
 
बायोमीट्रिक आधार-कार्ड संख्या से बैंक खाते जुड़े रहेंगे और इन खातों में लाभार्थी जनता को उसके हक में दी जाने वाली अनुदान-राशि हस्तांतरित कर दी जाएगी। इस प्रक्रिया को अपनाने से एक तो देरी से बचा जा सकेगा साथ ही लाभार्थी और लाभ के बीच के कई स्तर समाप्त हो जायेंगे। इस पहला का आखिरी चरण सर्वाधिक महत्वपूर्ण होगा- व्यवस्था इस बात को सुनिश्चित करेगी कि वास्तविक रकम अदायगी लाभार्थी के दरवाजे पर हो और इसके लिए बिजनेस कारेस्पोंडेन्टस् का एक संजाल बिछाया जाएगा। इसके लिए बायोमीट्रिक माइक्रो एटीएम का इस्तेमाल होगा। इस तरह सफलता की माप का पैमाना यह नहीं होगा कि रकम लाभार्थी के बैंक खाते में गई या नहीं बल्कि पैमाना यह होगा कि पैसा सीधे लाभार्थी के हाथ में पहुंचा या नहीं। यह लाभार्थी कोई छात्र भी हो सकता है- पेंशनर, विधवा, बुजुर्ग, विकलांग या गरीब परिवार का व्यक्ति भी।

बहरहाल, इस मामले में पारदर्शिता और जवाबदेही को लेकर सरकार की तरफ से जमीनी स्तर पर कोई खास स्पष्टता नहीं है। ना ही आधिकारिक स्तर पर यह जागरुकता ही दिखती है कि क्या-क्या जरुरतें ऐसा करने पर आन पड़ सकती हैं और जान पड़ता है कि सरकार को इस नकदी-हस्तांतरण की एकदम से हड़बड़ी है और वह एक ना एक तरह से, वैधानिक हकदारी को आधार-कार्ड से जोड़ देना चाहती है पहचान-पत्र की इस योजना को अनिवार्य नहीं बल्कि स्वैच्छिक बताया जा रहा है।

नई रिपोर्ट के अनुसार सरकार पीडीएस में नकदी के हस्तांतरण के लिए एक पायलट परियोजना दिल्ली सहित छह केंद्रशासित प्रदेशों में लागू करेगी। 90 फीसदी लाभार्थियों के पास बैंक-खाता हो जाने के बाद सरकार अन्य इलाके में इस योजना को लागू करेगी। दिल्ली में हुए एक पायलट अध्ययन के मुताबिक कई लाभार्थियों ने खाद्यान्न के बदले नकदी लेने में रुचि दिखायी है। जबकि दूसरी तरफ राजस्थान से आने वाली रिपोर्ट, (जहां किरोसिन के बदले नकदी देने की पायलट योजना चलायी गई) का इशारा है कि अगर सरकार ने पर्याप्त इंतजात नहीं किए तो नकदी हस्तांतरण की योजना को लागू करने में भारी परेशानियां आयेंगी। साथ ही राजस्थान से आने वाली जमीनी स्तर की रिपोर्टों में यह भी कहा गया है कि लोग किरोसिन के बदले नकदी लेने की जगह सीधे सामान(किरोसिन) ही लेना चाहते हैं।


इससे संबंधित लिंक्स-
 
Do poorpeople in Delhi want to change from PDS to cash transfers? A study conducted bySEWA Delhi, October 2009,
http://www.sewabharat.org/Delhi%20cash%20transfers%20english
 
No needfor hype but certainly a hope-Jairam Ramesh and Varad Pande, The Hindu, 11December, 2013, http://www.thehindu.com/opinion/op-ed/no-need-for-hype-but-c
 
\\\\\\\'Cashtransfer more efficient than PDS\\\\\\\'is efficient way for extending food subsidy\\\\\\\',The Times of India, 20 January, 2013,
http://articles.timesofindia.indiatimes.com/2013-01-20/pune/
 
Cashtransfer in PDS put on hold-Ajith Athrady, Deccan Herald, 26 January, 2013,
http://www.deccanherald.com/content/307955/cash-transfer-pds
 
New day,new start-Abhijit Banerjee, The HIndustan Times, 1 January, 2013,
http://www.hindustantimes.com/News-Feed/AbhijitBanerjee/New-
 
भारत में भुखमरी और कुपोषण बड़े पैमाने पर है- क्या नया बिल इसकी समाप्ति में मददगार होगा?

भारत में कुपोषण की दशा भयावह है। यहां छह साल से कम उम्र के तकरीबन 46 फीसदी बच्चे कुपोषण का शिकार हैं और ऐसा होने के कारण उनका आगे का भविष्य अंधकारमय होने की आशंका है। भारत में मौजूद सामाजिक-आर्थिक असमानता भी इस परिघटना में खासा योगदान देती है: गरीब इलाके, मिसाल के लिए आदिवासी बहुल जिलों के बारे में मानवाधिकार कार्यकर्ता विनायक सेन ने नेशनल न्यूट्रीशन मॉनिटरिंग ब्यूरो के आंकड़े(2009) के आधार पर तर्क दिया है कि यहां के 40 फीसदी पुरुष-आबादी और 49 फीसदी महिला आबादी का बॉडी मॉस इंडेक्स 18.5 से नीचे है और इस स्थिति को निरंतरता में मौजूद भुखमरी की संज्ञा दी जा सकती है। 

बिल और इसको केंद्र में रखकर आयी संसद की स्थायी समिति की सिफारिशों की आलोचना यह कहते हुए की जा रही है कि इसमें शिशुओ और बच्चों के कुपोषण की दशा की अनेदेखी की गई है और इसी कारण समेकित बाल विकास कार्यक्रम को बिल में वैधानिक तौर पर एक अधिकार के रुप में स्वीकार नहीं किया गया है। बाल-अधिकार की सुरक्षा से जुड़े आयोग ने भी संसद की स्थायी समिति की इस सिफारिश की आलोचना की है कि किसी दंपत्ति को कुपोषण के मद में दिया जाने वाली सहायता राशि पहले दो बच्चे तक ही सीमित रखी जाएगी। आयोग का कहना है कि खाद्यान्न-सुरक्षा बिल को जनसंख्या नियंत्रण के उपाय के रुप में नहीं देखा जाना चाहिए। 

इसके अतिरिक्त बिल में विकेंद्रित खाद्यान्न-उपार्जन पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है, ना ही चावल गेहूं से इतर ज्वार-बाजरा और अन्य पोषक मोटहन के वितरण के बारे में ही सोचा गया है जबकि वर्षाजल से सिंचित खेती के इलाके में ये अनाज रोजमर्रा के भोजन में शामिल किए जाते हैं।
 
The ComingFamine in India-Binayak Sen, Mainstream Weekly, VOL L No 46, November 3, 2012, http://www.mainstreamweekly.net/article3798.html
 
EndingHunger, June, 2012, http://www.india-seminar.com/2012/634.htm
 
FoodEntitlement Act 2009,
http://www.righttofoodindia.org/data/rtf_act_draft_charter_s
 
http://www.ddsindia.com/www/pdf/MINI%20Letter%20to%20MPs%20o

https://mail.google.com/mail/u/0/images/cleardot.gif

 



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