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न्यूज क्लिपिंग्स् | असमानता की जड़ें-- सतीश सिंह

असमानता की जड़ें-- सतीश सिंह

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published Published on Sep 8, 2016   modified Modified on Sep 8, 2016

सरकार चाहती है कि देश विकास के पथ पर तेजी से अग्रसर हो, लेकिन वह बैंकों की सेहत सुधारने की दिशा में ठोस पहल नहीं कर रही है। मजबूत अर्थव्यवस्था की रीढ़ बैंकिंग क्षेत्र को माना गया है। अर्थव्यवस्था को बैंकों की मदद से ही संतुलित रखा जा सकता है। बैंकों की सकारात्मक भूमिका के बिना वित्तमंत्री देश के विकास के सपने को साकार नहीं कर सकते हैं।


संपत्ति शोध कंपनी ‘न्यू वर्ल्ड वेल्थ' की हालिया रपट में कहा गया है कि दुनिया में रूस के बाद भारत संपत्ति वितरण के मामले में दूसरा सबसे ज्यादा असमानता वाला देश है। भारत में आधे से अधिक संपत्ति ऐसे धनवानों के हाथों में है, जिनकी हैसियत दस लाख डॉलर (लगभग 6.7 करोड़ रुपए) से अधिक है। यहां चौवन प्रतिशत संपत्ति गिने-चुने धनवानों के हाथों में है। मौजूदा समय में भारत दुनिया के दस सबसे अमीर देशों में शामिल है, जहां कुल संपत्ति 5,600 अरब डॉलर है। यह विडंबना ही है कि इसके बावजूद अधिकांश भारतीय कुपोषण, बेरोजगारी, अशिक्षा, बिजली, पानी, भोजन, स्वास्थ आदि समस्याओं से जूझ रहे हैं। बुनियादी सुविधाओं के अभाव में लोगों को दो वक्त की रोटी नसीब नहीं हो पा रही है।

संपत्ति वितरण के संदर्भ में रूस दुनिया का सबसे ज्यादा असमान देश है, जहां कुल संपत्ति के बासठ प्रतिशत पर कब्जा गिने-चुने धनकुबेरों का है, जबकि जापान दुनिया का सबसे समानता वाला देश है, जहां धनाढ्यों के हाथ में कुल संपत्ति का केवल बाईस प्रतिशत हिस्सा है। इसी तरह आॅस्ट्रेलिया की कुल संपत्ति में केवल अट्ठाईस प्रतिशत पर धनवानों का आधिपत्य है। रपट के मुताबिक अमेरिका और ब्रिटेन भी समानता वाले देशों में अग्रणी हैं, जहां कुल संपत्ति पर क्रमश: बत्तीस प्रतिशत और पैंतीस प्रतिशत पर धनकुबेरों का कब्जा है।

इधर, रिजर्व बैंक की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक बैंकों की कुल गैर-निष्पादित संपत्ति (एनपीए) की बीस प्रतिशत राशि केवल सौ बड़े कर्जदारों ने पचा रखी है। कहा जा रहा है कि अगर ये सौ कर्जदार बैंकों की बकाया राशि लौटा दें तो बैंकों की वित्तीय स्थिति सुधर जाएगी। रिजर्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार बैंकों के कुल कर्ज में बड़े कर्जदारों की हिस्सेदारी सितंबर, 2015 के 56.8 प्रतिशत से बढ़ कर मार्च, 2016 में अट्ठावन प्रतिशत हुई, लेकिन बैंकों के सकल एनपीए में इनकी हिस्सेदारी इसी अवधि में 83.4 से बढ़ कर 86.4 प्रतिशत हो गई।

गौरतलब है कि बड़ा कर्जदार उसे कहा जाता है, जिस पर बैंकों की पांच करोड़ से अधिक राशि बकाया हो। रिजर्व बैंक की वित्तीय स्थिरता रिपोर्ट के अनुसार सितंबर, 2015 से मार्च, 2016 के दौरान बड़े कर्जदारों का सकल एनपीए अनुपात सात से बढ़ कर 10.6 प्रतिशत हो गया है, जबकि मार्च, 2015 में सभी बैंकों के सकल एनपीए अनुपात में सौ बड़े कर्जदारों की हिस्सेदारी महज 0.7 प्रतिशत थी। इस तरह देखा जाए तो बड़े कर्जदारों के मामले में एनपीए में इजाफा सभी बैंकों में तेजी से हुआ है, लेकिन सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के संदर्भ में यह वृद्धि ज्यादा तेज हुई है। मार्च, 2016 तक सौ बड़े कर्जदारों को कर्ज दी गई राशि का 27.9 प्रतिशत और सभी अधिसूचित व्यावसायिक बैंकों (एससीबी) के कुल कर्ज का 16.2 प्रतिशत सौ बड़े कर्जदारों पर बकाया है।

भले ही भारत दुनिया के दस सबसे अमीर देशों में शामिल है, लेकिन प्रसिद्ध अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज की मानें तो देश के कुछ राज्य मसलन बिहार, झारखंड, ओडिशा, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश आदि कुपोषण की समस्या से बुरी तरह त्रस्त हैं। गरीबी की वजह से इन राज्यों में कुपोषण के मामलों में लगातार इजाफा हो रहा है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार हमारे देश में छह करोड़ से भी अधिक बच्चे कुपोषण से ग्रसित हैं। कुपोषण की जद में आने के बाद बच्चों में बीमारियों से लड़ने की क्षमता या उनके शरीर की प्रतिरोधक क्षमता धीरे-धीरे कमजोर पड़ने लगती है और बच्चा खसरा, निमोनिया, पीलिया, मलेरिया आदि बीमारियों की गिरफ्त में आकर दम तोड़ देता है। बच्चे मरते हैं कुपोषण से, लेकिन लोगों को लगता है कि उनकी मौत बीमारियों के कारण हो रही है। मौजूदा समय में कुपोषित देशों के बीच भारत की स्थिति सबसे ज्यादा खराब है। आमतौर पर हमारे देश में यह तर्क दिया जाता है कि कुपोषण की समस्या का मूल कारण आबादी है, पर इसके बरक्स चीन से तुलना करने पर हमारा यह दावा खोखला और बेमानी लगता है। चीन की जनसंख्या हमारे देश से अधिक है। फिर भी वहां कुपोषित बच्चों की संख्या हमारे देश से छह गुना कम है।

ग्रामीण भारत में लगभग 83.3 करोड़ लोग रहते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के रूप में कृषि को छोड़ कर कोई दूसरा विकल्प उपलब्ध नहीं है। कुटीर उद्योग के अभाव में लोगों की निर्भरता सिर्फ कृषि पर है, जिसके कारण कृषि क्षेत्र में छद्म रोजगार की स्थिति लगातार बनी हुई है। एक आदमी के काम को अनेक लोग मिल कर कर रहे हैं। खेती-किसानी में दो वक्त की रोटी का इंतजाम करना आज मुश्किल हो गया है। खेती-किसानी के दौरान रोजमर्रा के कार्यों को पूरा करने लिए किसानों को वित्तीय मदद की जरुरत होती है, जिसकी पूर्ति के लिए किसानों को अक्सर महाजन की शरण में जाना पड़ता है। रोजगार के अभाव में युवा दिग्भ्रमित होकर गलत रास्ता अख्तियार करते हैं या फिर कर्ज और भुखमरी की वजह से आत्महत्या करते हैं। महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, उत्तर प्रदेश आदि राज्यों में हाल ही में किसानों ने आत्महत्या की है।

लगभग एक सौ तीस करोड़ आबादी वाले इस देश में अधिकतर लोगों के घर का सपना पूरा नहीं हो पा रहा है। अधिकतर लोग बिना घर के ही परलोक सिधार जाते हैं। जीवन-काल में ऐसे लोगों का आशियाना सड़क, फुटपाथ, पार्क, गांव के निर्जन इलाके, पेड़ आदि होते हैं। लोकसभा के चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सभी को 2022 तक आशियाना देने का वादा किया था, लेकिन इस दिशा में तेजी से कार्य नहीं हो पा रहा है। हालांकि, मामले में सरकार संवेदनशील है, इसलिए आधारभूत संरचना को मजबूत करने के लिए रोजगार में बढ़ोतरी, ग्रामीण अर्थव्यवस्था में मजबूती, खेती-किसानी की बेहतरी आदि के लिए ही सरकार ने ‘मेक इन इंडिया' की संकल्पना का आगाज किया है। इस दिशा में स्वयं सहायता समूह (एसएचजी), वित्तीय संस्थान आदि की मदद से ‘मेक इन इंडिया' के कार्यों को गति दी जा रही है।

फिलहाल दूर-दराज के ग्रामीण इलाकों में एसएचजी छोटे स्तर पर निर्माण कार्य कर रहे हैं। वे जूते-चप्पल, बर्तन, कपड़े, घरेलू जरूरत की वस्तुएं, पापड़, आचार, कुर्सी-टेबल आदि बना रहे हैं, जो पूरी तरह से स्वदेशी तकनीक से बने हुए होते हैं। शहरों में सरस मेले में इन सामान की बानगी को देखा जा सकता है। अगर सरकार इन सामान की बिक्री के लिए प्रयास करे या प्रोत्साहन दे तो मौजूदा स्थिति में बदलाव आ सकता है। वैसे, सरकार इस संदर्भ में अनेक कल्याणकारी योजनाएं जैसे, पीएमईजीपी, एसजीएसवाई आदि चला रही है, जिससे इस तरह के कुटीर उद्योगों को बढ़ावा मिल रहा है, लेकिन इन प्रयासों को तब तक पर्याप्त नहीं माना जा सकता है, जब तक स्वदेशी सामानों के समुचित विपणन एवं बिक्री की व्यवस्था की जाए।

लोगों को आत्मनिर्भर और देश में समावेशी विकास को गति देने के लिए लिए ही महात्मा गांधी ने सबसे पहले 1918 में हथकरघा की मदद से घर-घर में हाथों से कपड़ा बनाने का आह्वान किया था। इस आलोक में खादी के कपड़ों का व्यापक स्तर पर निर्माण करके गांवों को आत्मनिर्भर बनाने का प्रयास किया गया था। जाहिर है, जब घर के सभी सदस्य मिल कर कपड़ा बुनेंगे तो घर की आमदनी में इजाफा, बचत को बढ़ावा, परिवार को दो वक्त की रोटी का मिलना, दूसरे पर निर्भरता का समापन आदि संभव हो सकेगा। जब गांव के सभी लोग इस मार्ग पर चलने लगेंगे तो ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूती मिलेगी, साथ ही देश में समावेशी विकास का मार्ग प्रशस्त होगा।

सरकार चाहती है कि देश विकास के पथ पर तेजी से अग्रसर हो, लेकिन वह बैंकों की सेहत सुधारने की दिशा में ठोस पहल नहीं कर रही है। मजबूत अर्थव्यवस्था की रीढ़ बैंकिंग क्षेत्र को माना गया है। अर्थव्यवस्था को बैंकों की मदद से ही संतुलित रखा जा सकता है। बैंकों की सकारात्मक भूमिका के बिना वित्तमंत्री देश के विकास के सपने को साकार नहीं कर सकते हैं। बैंकों के स्वस्थ रहने पर ही सरकार राजकोषीय और चालू घाटे पर नियंत्रण, औद्योगिक विकास दर में इजाफा, खुदरा व्यापार को बढ़ावा, विकास दर में तेजी, आधरभूत संरचना को मजबूत, ग्रामीण अर्थव्यवस्था को गति, कृषि क्षेत्र को गतिमान, किसानों की माली हालात में सुधार, रोजगार के अवसरों में बढ़ावा, शिक्षा के क्षेत्र में उन्नयन आदि को संभव बना सकती है।

भ्रष्टाचार की जड़ आज समाज के निचले स्तर तक पैबस्त हो चुकी है। सरकारी महकमों में चपरासी से लेकर बड़े साहब तक रिश्वत लेना अपना अधिकार समझते हैं। निजी क्षेत्र के मानव संसाधन भी इस मामले में पीछे नहीं हैं। इसे केवल रिश्वत के लेन-देन तक सीमित नहीं रखा जा सकता। अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन नहीं करना भी भ्रष्टाचार का ही हिस्सा है। इस दृष्टिकोण से देखा जाए तो सभी लोग किसी न किसी स्तर पर भ्रष्टाचार कर रहे हैं, जबकि अमूमन लोग सरकारी सेवकों और नेताओं को ही भ्रष्टाचार का कारक मानते हैं तथा जनता और निजी क्षेत्र की संलिप्तता को सिरे से खारिज कर देते हैं, जबकि यह गलत संकल्पना है। वर्तमान में अधिक लाभ के लिए किसान सब्जियों और फसलों में जहर मिला रहे हैं, व्यापारी मिलावट कर रहा है और पत्रकार ब्लेकमेलिंग का काम कर रहे हैं। मजदूर, कामगार, सब्जी विक्रेता आदि भी अपने हिस्से की रोटी से अधिक पाने के लिए गलत रास्ता अख्तियार कर रहे हैं। जाहिर है, जब तक मौजूदा स्थिति में सुधार नहीं होगा, तब तक कुछ धनवानों के हाथों में संकेंद्रित संपत्ति का वितरण आम लोगों के बीच संभव नहीं है।


http://www.jansatta.com/politics/financial-inequality-between-indian-citizen/140742/


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