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न्यूज क्लिपिंग्स् | कृषि नीति और नीयत का संकट- अविनाश पांडेय समर

कृषि नीति और नीयत का संकट- अविनाश पांडेय समर

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published Published on Mar 4, 2014   modified Modified on Mar 4, 2014

आंकड़ों की नजर से देखा जाये, तो भारतीय कृषि सहज बोध को धता बतानेवाली अजूबे सी दिखती है. कुछ इस तरह कि भारत की विकास दर के दहाई पार कर देश को अगली विश्व शक्ति बनाने के सपने दिखाने के ठीक बाद वैश्विक आर्थिक मंदी की चपेट में आते हुए ध्वस्त हो जाने पर कृषि क्षेत्र में सुधार ने ही संभाला था.

और यह भी कि कुल आबादी के करीब 67 फीसदी लोगों को रोजगार मुहैया करानेवाले इस क्षेत्र का सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी में महज 14 फीसदी हिस्सा है. अब इसमें खेती पर निर्भर आबादी के 85 फीसदी हिस्से का छोटे या सीमांत किसान होना जोड़ दें और खेती के संकट ही नहीं, बल्कि गांवों से गायब होती जा रही आबादी को ढूंढ़ने के सूत्र भी मिलने लगेंगे.

जी हां, जनगणना के आंकड़ों को देखें तो साफ है कि 2001 से 2011 के दशक के बीच देशभर में तकरीबन 77 लाख किसान गायब हो गये. यदि हम सीधे संख्याओं में बात करें, तो 2001 में कृषि को मुख्य पेशा बतानेवाले 10 करोड़ तीन लाख किसानों के मुकाबले वर्ष 2011 में हमारे देश में महज नौ करोड़ 58 लाख किसान बचे थे. फिर बिना किसी सूखे या अन्य किसी प्राकृतिक आपदा के होनेवाली यह गिरावट हरित क्रांति के बाद पहली बार हुई थी. मतलब साफ है कि बीते दशक में भारत में खेती का संकट गहराता ही गया है.

फिर से आंकड़ों की भाषा में बात करें, तो देश की विकास दर के 12 तक पंहुच जाने पर भी भारतीय कृषि 1994-95 से 2004-05 के बीच 0.4 फीसदी के खतरनाक स्तर से सुधरकर 11वीं पंचवर्षीय योजना के दौरान 3.6 फीसदी के औसत तक ही पहुंच पायी थी. हर मर्ज की दवा बता कर लायी गयी नयी आर्थिक नीतियों के लागू होने के उस दौर में खाद्यान्न का उत्पादन 0.5 फीसदी की दर तक पंहुच गया था. यह संकट कृषि के किसी एक क्षेत्र में नहीं, बल्कि चौतरफा था और 1991 से 2010 के बीच कपास को छोड़ कर सभी महत्वपूर्ण फसलों के उत्पादन की वृद्धि दर में तीखी गिरावट देखी गयी थी. हद यह कि अब भी अगर यह आंकड़ा योजना आयोग द्वारा निर्धारित चार प्रतिशत की जादुई संख्या को छू भी ले, तो भी खेती पर निर्भर लोग निर्माण और सेवा क्षेत्र पर निर्भर लोगों के जीवन स्तर को नहीं छू पायेंगे.

कृषि में पूंजी का अभाव!

मुल्क के हुक्मरानों को न केवल इस गहराती जा रही त्रसदी का पता था, बल्कि काफी हद तक वे ही इसके लिए जिम्मेदार भी थे. वरना क्या वजह रही होगी कि उद्योग और सेवा क्षेत्र में देशी-विदेशी पूंजी को आमंत्रित करने के साथ इन्हें तमाम तरह की सुविधाएं और कर छूट दी गयी है. हरित क्रांति के बाद कृषि के लिए सबसे बड़े संकट के इस दौर में भी इस क्षेत्र में सकल पूंजी विनिर्माण को लेकर बेहद लापरवाही बरती गयी है. 1999-2000 से 2003-04 के दौरान तेज गति से विकास के दौर में भी कृषि क्षेत्र में सकल पूंजी विनिर्माण 20 फीसदी से भी कम होने के बावजूद पंचवर्षीय योजनाओं में भी कृषि और कृषि आधारित क्षेत्रों के लिए निर्धारित बजट का 2.4 प्रतिशत पर ठहरे रहना इसी ओर इशारा      करता है.

दूसरे नजरिये से भी देखें, तो इतनी बड़ी आबादी के खेती पर निर्भर होने के बावजूद किसानों को लेकर राजनैतिक पहल केवल न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करने तक ठिठकी रह जाती हैं. यह समर्थन मूल्य भी अकसर बड़े किसानों और किसान लॉबियों/ बिचौलियों को फायदा पंहुचाने से ज्यादा कुछ नहीं कर पाते. सरकार और कृषि में खेत वाले हिस्से में खड़े किसान के पास फसल के ठीक बाद उत्पादन में किये गये निवेश से लेकर घरेलू कामों तक के लिए नकद पूंजी की जरूरत होती है और यह पूंजी वह फसल बेचकर ही हासिल कर सकता है. कहने की जरूरत नहीं कि यही वह दौर भी होता है, जब फसल का दाम सबसे कम होता है. तकरीबन प्रत्येक वर्ष अपनी मेहनत से उगाये आलू को सड़कों पर फेंक देनेवाले इन किसानों से पूछिए कि साल के अंत में उन्हें कोल्ड-स्टोरेज से आनेवाला वही आलू जब दस गुने से ज्यादा दाम पर खरीदना पड़ता है, तब उन्हें कैसा लगता होगा.

कीमतें बढ़ीं, पर एमएसपी नहीं

तथ्य बताते हैं कि बीते चार सालों में जहां खाद्यान्न की कीमतों में 70 से लेकर 120 फीसदी तक की बढ़ोतरी हुई है. वहीं, दूसरी ओर किसी भी राज्य में सरकार की ओर से खरीदे जानेवाले खाद्यान्न के न्यूनतम समर्थन मूल्य (मिनिमम सपोर्ट प्राइस) यानी एमएसपी में 20 फीसदी से ज्यादा वृद्धि नहीं हुई है. उल्लेखनीय है कि इस दौरान खेती में बीजों से लेकर उर्वरकों तक की लागत कई गुना बढ़ गयी है. बेशक हम किसानों से भूखे मरते हुए भी उत्पादन की उम्मीद नहीं कर सकते. या यह उन्हें कृषि क्षेत्र से निकाल खेती को बड़ी कंपनियों के हवाले कर देने की बड़ी साजिश तो नहीं है?

तत्कालीन राष्ट्रीय जनतांत्रिक गंठबंधन (एनडीए) सरकार द्वारा राष्ट्रीय कृषि नीति में परिवर्तन कर कृषि को बड़ी पूंजी के लिए खोल देने के फैसले को देखें, तो ऐसा ही लगता है. खेती में तकनीकी विकास, पूंजी निवेश और सुनिश्चित बाजार उपलब्ध कराने के नाम पर निजी क्षेत्र को कांट्रेक्ट फार्मिग और भूमि के अनिश्चित कालीन पट्टे का अधिकार देनेवाली इस नीति ने सीमांत किसानों को सीधे-सीधे बड़ी कंपनियों के सामने खड़ा कर दिया है और साफ है कि ऐसी हालत में कृषि उपज मंडियों से लेकर फूड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया के गोदामों तक पर किसका कब्जा हुआ है.

अफसोस यह कि मौजूदा सरकार ने इस नीति को ठीक करने की जगह पहले संयुक्त राज्य अमेरिका से 2006 में इंडो-यूएस नॉलेज इनिशिएटिव ऑन एग्रीकल्चरल रिसर्च एंड एजुकेशन समझौता किया. फिर वर्ष 2011 में समेकित विदेशी प्रत्यक्ष निवेश नीति में परिवर्तन कर कृषि क्षेत्र को भी 100 प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए खोल इस संकट को गहराने का ही काम किया है. आज की स्थिति में रिलायंस और भारती इंटरप्राइजेज जैसी बड़ी कंपनियों का पूर्ति और विपणन श्रृंखला के करीब 37 प्रतिशत हिस्से पर पूरा कब्जा है. मुनाफे के लिए काम करनेवाली ये बड़ी कंपनियां, जिन महंगी तकनीक और पूंजी केंद्रीत कृषि पद्धतियों को अपनाती हैं, वे बेशक कम किसानों वाले पश्चिमी देशों में सफल होती हैं.                

एक बड़ी आबादी के सीमांत कृषि पर निर्भर भारत जैसे देश में यह बड़े और छोटे किसानों के बीच पहले से मौजूद बड़े अंतर को और बड़ा ही करेगा. और वॉलमार्ट जैसी और भी बड़ी कंपनियों के आने के बाद यह कब्जा छोटे और सीमांत किसानों के पास अपने उत्पाद को बाजार तक पंहुचाने की बची-खुची जगह भी छीन लेगा.

बिचौलियों का खेल

कहना न होगा कि भारतीय शासक वर्ग ने कृषि के संकट को समझने की कोशिश ही नहीं की है, सो उनसे इसका समाधान निकालने की कोई भी उम्मीद नहीं की जा सकती. यहां मुख्य समस्या उत्पादन की नहीं है, बल्कि भारत के पास तो खाद्यान्न का जरूरत से करीब ढाई गुना ज्यादा बफर स्टॉक है.

यहां समस्या है किसानों को भंडारण और विपणन के लिए सहज और सस्ती सुविधाएं देने की, जिसके अभाव में वह अपना उत्पाद बिचौलियों के हाथ बेहद सस्ते दामों में बेचने को मजबूर होते हैं. दूसरी समस्या है, भारतीय कृषि को मानसून और अन्य प्राकृतिक गतिविधियों पर कम से कम निर्भर बनाने की. उन्हें एक संवहनीय सिंचाई व्यवस्था उपलब्ध कराने की, जिसके अभाव में बहुत सारी कृषि योग्य जमीन बेकार पड़ी रह जाती है.

तीसरी समस्या है, भारतीय कृषि में क्षेत्रीय विसंगतियों को दूर करने की, जिसकी वजह से पंजाब जैसे राज्य तो अपनी कृषि क्षमता को उत्पादन में बदल पाते हैं, लेकिन बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्य बिजली न होने की वजह से अपनी फसलों को सूखता देखते हैं. पर शायद सबसे कहीं ज्यादा जरूरी है कृषि क्षेत्र को पुनर्जीवित करने की, ग्रामीण इलाकों को शहरी क्षेत्रों जैसी सुविधाएं मुहैया कराने की, जिनकी अनुपस्थिति में न तो पलायन, रुकेगा न हालात बेहतर होंगे.

बोयें फसल काटें मौत.

विदर्भ, बुंदेलखंड, आदिलपुर, गुजरात. अलहदा से इन नामों में साझा बस इस बात का है कि ये सभी बीते डेढ़ दशक में आत्महत्या कर चुके दो लाख से ज्यादा हिंदुस्तानी किसानों के पते हैं. बेशक आत्महत्याओं में समस्यायों का हल ढूंढ़ने की यह रवायत तेलंगाना में पॉवरलूम्स के आने के बाद बेरोजगार हो चुके हैंडलूम बुनकरों ने शुरू की थी, पर किसानों के मजबूर होकर इस हालत में पहुंच जाने के बाद यह सिलसिला कभी थमा नहीं. बुंदेलखंड में बीते दशक में 2,945 और पूरे देश में सिर्फ 2012 में 13,754. अपनी सारी भयावहता के बावजूद आंकड़ों में इन इलाकों का पूरा सच नहीं दिखता. वह सच, जो खेती के मुश्किल होते जाने के दौर में कजरे की शक्ल में आता है और फिर सूखे की चपेट में आयी फसलों के साथ जान लेकर चला जाता है. इनमें से गुजरात और महाराष्ट्र के किसानों को तो बीटी कॉटन उगा कर रातों-रात अमीर बन जाने के सपने दिखा कर सरकार ने ही मौत की तरफ धकेला था और बाद में जिम्मेदारी तक लेने से मुकर गयी.

आंकड़े और हकीकत!

झूठ और गलतबयानी की हद यह है कि खुद के आंकड़ों में संख्या के 135 होने के बावजूद गुजरात सरकार ने बीते दशक में सिर्फ एक किसान के आत्महत्या करने की बात स्वीकार की है. वहीं, नेशनल क्राइम रिकॉर्डस ब्यूरो के आंकड़ों में 2003 से 2013 तक की कुल संख्या 489 बतायी गयी है. उदाहरण भले ही गुजरात का हो, सारे प्रदेशों में हालात तकरीबन ऐसे ही हैं. केंद्र सरकार से विशेष पैकेज मांगने वाले वक्त को छोड़ कर प्रभावित परिवारों की मदद करना तो दूर, सभी सरकारें इन आत्महत्याओं को स्वीकार तक करने से परहेज करती हैं.

कितनी मिल पाती मदद

सवाल है कि दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का दावा करनेवाले देश की कल्याणकारी योजनाएं इन किसानों को मौत के मुंह में जाने से बचा क्यों नहीं पातीं? यह भी कि बुंदेलखंड जैसे इलाकों में दी गयी 7,000 करोड़ रुपये की मदद किनकी जेबों में चली जाती है?

बाकी क्षेत्रों से उल्टा बुंदेलखंड की त्रसदी अचानक भी नहीं आयी थी. आठ बरस लंबे सूखे से बरबाद होती फसलें ऐसी ही किसी स्थिति के उपजने की तरफ इशारा कर रही थीं. या फिर विदर्भ और गुजरात में फसलों के लिए साहूकारों की मनमानी दरों पर कर्ज लेने को मजबूर किसानों की मदद के लिए सहकारी बैंक सामने क्यों नहीं आये?

तमाम मामलों में सरकारी बैंकों ने कर्ज लिए किसानों की मदद करना छोड़, कर्ज वसूली के लिए गुंडे भिजवा कर उन्हें अपमानित क्यों किया? साफ है कि यह त्रसदी न केवल सरकारी तंत्र की असफलता से जन्मी है, बल्कि जमीन से सरकार के गायब होने का प्रमाण भी है.

इसीलिए बुंदेलखंड हो या आदिलाबाद, जमीन पर काम करनेवाला प्रभावी तंत्र खड़ा किये बिना इन आत्महत्याओं को रोकना असंभव है. इस तंत्र को खड़ा करने के लिए भूमि सुधार, मानसून असफल होने की दशा में सिंचाई सुनिश्चित करनेवाली व्यवस्था, सस्ते दामों पर बीज और उर्वरक उपलब्ध करानेवाले सहकारी संगठन, कृषि के लिए जरूरी तकनीक और ट्रैक्टर जैसी मशीनें उपलब्ध करवाना अनिवार्य है. साथ ही, जरूरी है कि साहूकारों के कब्जे से छोटे और सीमांत किसानों को मुक्त कराते हुए उनकी जरूरतों को पूरी करनेवाली बैंकिंग सुविधाओं को उन तक पहुंचाया जाये.

इसके अभाव में आत्महत्याएं नहीं रुकेंगी. हां, आत्महत्याओं के नाम पर आने वाले पैकेज भ्रष्ट नौकरशाही और राजनीति के गठजोड़ को और अमीर जरूर बनाते रहेंगे.


http://www.prabhatkhabar.com/news/94810-Agricultural-policy-intention-crisis-suicide-corrupt-bureaucracy-politics.html


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