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न्यूज क्लिपिंग्स् | आपराधिक उद्यम जैसा सत्ता का स्वरूप- अजय सिंह

आपराधिक उद्यम जैसा सत्ता का स्वरूप- अजय सिंह

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published Published on May 20, 2011   modified Modified on May 20, 2011

राहुल गांधी के भट्टा, परसौल जाने के बाद पहली बार ग्रामीण भय के वातावरण से बाहर आये. पुलिस से भयाक्रांत महिलाएं व बच्चे पहली बार खुल कर बोले. शायद राहुल गांधी का राजसत्ता की बर्बरता से यह पहला सामना था.

भट्टा, परसौल नामक पश्चिमी उत्तर प्रदेश के दो गांव राजनेताओं के लिए तीर्थ बन गये हैं. गौतम बुद्ध नगर के ये दो गांव पुलिस और ग्रामीणों के खूनी संघर्ष की रणभूमि है. यह सत्ता के मद में चूर मायावती सरकार की क्रूरता की पराकाष्ठा है, वहीं जन आंदोलनों के स्वरूप पर एक सवालिया निशान भी है. दरअसल, इन दो गांवों में जो कुछ हुआ वह इस बात की फ़िर ताकीद करता है कि राजसत्ता का स्वरूप जनकल्याण के बजाय एक आपराधिक उद्यम जैसा है.इस संदर्भ में उचित होगा कि बीती एक मई की घटना की चर्चा करें. इसमें संदेह नहीं कि किसानों के आंदोलन के नाम पर मौजूद भीड़ के तेवर हिंसक थे. उसकी वजह लगभग चार महीने से सुलग रहा आंदोलन था. यमुना एक्सप्रेस वे के नाम पर अधिग्रहीत जमीन में भट्टा, परसौल और पास के कई गांव शामिल थे. अधिग्रहण का कारण बताया गया उत्तर प्रदेश का औद्योगिक विकास. पर असलियत में 850 रुपये प्रति मीटर अधिग्रहीत इस जमीन को 5000 से 6000 रुपये प्रति मीटर के हिसाब से बिल्डरों को बेचा गया. अगर स्थानीय लोगों की मानें तो लगभग 3000 से 5000 रुपये प्रति मीटर उगाही पार्टी फ़ंड के नाम पर हुई. बिल्डरों ने इस जमीन को हमारे और आप जैसे आम शहरी लोगों को 18000 रुपये मीटर में बेचा.

दिलचस्प यह है कि इस संगठित अपराध का नया रूप जनता के सामने था. ग्रामीणों को साफ़ दिखायी दे रहा था कि बिल्डर-अफ़सर और राजनेताओं की यह तिकड़ी किस तरह भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी है. चार महीने से सुलगता यह जन आक्रोश एक रात में हिंसक रूप नहीं लिया. इसके पीछे कई कारण हैं.

देश की राजधानी से 40 किमी दूर जनाक्रोश का यह रूप किसी भी राजनीतिक दल से छुपा नहीं था. पर राजनीति की भी तो कुछ मर्यादा होती है. बीजेपी, कांग्रेस व सपा मायावती पर तो प्रहार कर सकते हैं, लेकिन बिल्डर लॉबी पर नहीं. वजह साफ़ है. यमुना एक्सप्रेस वे के नाम पर जेपी ग्रुप को सबसे ज्यादा फ़ायदा पहुंचा है. पर यही ग्रुप तो बीजेपी शासित प्रदेशों में भी फ़ल-फ़ूल रहा है. बिल्डरों की इस लॉबी का संबंध सिर्फ़ बीएसपी के नहीं, बल्कि बीजेपी, कांग्रेस और सपा के शीर्ष नेताओं से भी काफ़ी गहरा है. यही वजह है कि किसी भी राजनेता को इस आक्रोश से परहेज था. लिहाजा नेतृत्व की बागडोर निरंकुश हाथों में गयी. इस जनाक्रोश का हिंसक होना राजसत्ता का एक कवच बन गया.

एक मई के बाद दो दिनों तक पुलिस ने जो तांडव किया वह अभूतपूर्व नहीं था. उत्तर प्रदेश पुलिस के आला अधिकारी अपने राजनैतिक आकाओं को बचाने के लिए अपराधी बन जाते हैं. मिसाल के तौर पर 1989 में खुर्जा में सांप्रदायिक दंगे. औपचारिक तौर पर तब सरकार ने दंगे में मरने वालों की संख्या सिर्फ़ 9 बतायी, जबकि वह संख्या सौ से ज्यादा थी. इसी तरह मेरठ में मलियाना और हाशिमपुरा में पीएसी के जवानों ने निदरेष मुसलमानों को गोली मारी. बाद में सबको मरा समझ कर हिंडन नदी में फेंक दिया गया. इसमें शक नहीं कि एक मई की हिंसक घटनाओं के बाद प्रदेश का शासकीय तंत्र इस बड़े अपराध को छुपाने में ही लगा था.

अगर उत्तर प्रदेश प्रशासन और पुलिस का इतिहास देखें तो राहुल गांधी के आरोप अतिशयोक्ति नहीं लगते. पर 1980 और 2011 में एक बड़ा अंतर है. मीडिया के इस युग में नि:संदेह 60-70 आदमी मारकर जलाना एक बर्बर प्रशासन के लिए भी मुश्किल काम है. इसमें शक नहीं कि पुलिस ने 5 साल के बच्चे से लेकर 80 साल के बूढ़े तक को बंदूक के कुंदों से मारा-पीटा. महिलाओं को भी नहीं छोड़ा. महिला पुलिस के न होने के बाद भी पीएसी के जवानों और पुलिस ने जमकर मनमाना उत्पात मचाया. सामाजिक बंधन और मर्यादा महिला उत्पीड़न की सही तसवीर देने में मुख्य बाधक है. पर बेशक, यह तसवीर बड़ी ही भयावह है.

सच तो यह है कि राहुल गांधी के भट्टा, परसौल जाने के बाद पहली बार ग्रामीण भय के वातावरण से बाहर आये. पुलिस से भयाक्रांत महिलाएं व बच्चे पहली बार खुल कर बोले. पुलिस तांडव का विवरण देने में जरूर कहीं अतिशयोक्ति भी होगी. शायद राहुल गांधी का राजसत्ता की बर्बरता से यह पहला सामना था. यही वजह थी कि कई आरोपों को सुनने मात्र से वे विचलित हो गये और उन्हें सच मान लिया. पर जाने-अनजाने उन्होंने इस हकीकत से परदा हटा दिया कि भट्टा, परसौल में मायावती सरकार की जघन्यता की पराकाष्ठा थी. वहीं दूसरी ओर सत्ता के तिकड़कम में माहिर राष्ट्रीय नेता बिल्डर-नेता-अफ़सर तिकड़ी के इस गंभीर अपराध को अनदेखा करते रहे. उनकी दिलचस्पी ज्यादा थी राहुल गांधी के बयान की सत्यता को परखना न कि आम जनता पर हुए अत्याचार को जानना. सच तो यह है कि भट्टा, परसौल प्रकरण भारतीय राजनीति के विकृतीकरण का एक नायाब नमूना है.


http://www.prabhatkhabar.com/node/5407


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