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न्यूज क्लिपिंग्स् | आयकर देने में इतना परहेज!-- आकार पटेल

आयकर देने में इतना परहेज!-- आकार पटेल

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published Published on May 18, 2016   modified Modified on May 18, 2016
कुछ साल पहले एक बुजुर्ग मुझे गाना सिखाने के लिए हर सुबह मेरे घर आया करते थे. वे भले व्यक्ति थे और यह काम दशकों से करते आ रहे थे. चूंकि हमारी मुलाकात नियमित रूप से हुआ करती थी, हम गाने की शिक्षा से पहले और बाद में उनसे कई सारे विषयों पर बात भी करते थे. उनमें जितनी गहरी लगन अपने संगीत को लेकर थी, उतनी ही गंभीरता से वे देश के बारे में भी सोचते थे. भ्रष्टाचार और हमारे नेताओं पर उनकी राय बहुत कठोर थी. 

कक्षाएं प्रतिदिन होने के कारण उनका शुल्क भी कुछ अधिक ही हो जाता था. पहले महीने जब मैं उनके लिए चेक बना रहा था, उन्होंने नगद भुगतान का अनुरोध किया. वे अपने देश से बहुत प्रेम करते थे, लेकिन उन्हें सरकार को कर (टैक्स) से वंचित रखने में कोई परेशानी नहीं थी. 

क्या वे असामान्य हैं? नहीं, दरअसल, और दुर्भाग्य से, वे आम प्रचलन का प्रतिनिधित्व हैं. यह एक विचित्र विरोधाभास है कि भारत की आबादी बहुत राष्ट्रवादी है और वह ‘भारत माता की जय' के नारे लगाने के लिए हमेशा तैयार रहती है, लेकिन उसमें अपनी देनदारी चुकाने की इच्छा नहीं है, जो मातृभूमि को महान बना सकती है. 

बहरहाल, हम भारतीय इस मामले में अकेले नहीं हैं. पाकिस्तान के हवाई अड्डों पर करदाताओं के लिए विशेष आप्रवासन कतारें होती हैं. कर चुकानेवाले इतने गिने-चुने और विशिष्ट होते हैं कि उन्हें विशेष सुविधाएं प्रदान की जाती हैं. 

भारत में सरकार ने कर देनेवालों की संख्या के बारे में बड़े निराशाजनक आंकड़े प्रस्तुत किये हैं. पहला, करीब एक फीसदी भारतीय ही आयकर देते हैं और इनसे बस दुगुने लोग ही अपनी आय का ब्योरा जमा कराते हैं. इस आंकड़े को समझने के लिए हमें यह जानना चाहिए कि अमेरिका में 45 फीसदी आबादी कर चुकाती हैं. दक्षिण अफ्रीका, जो ब्रिक्स समूह का भी सदस्य है, में यह संख्या 10 फीसदी है. जाहिर है, हमारे यहां भी स्थिति बदलनी चाहिए, परंतु बेहतरी का कोई संकेत दिखाई नहीं पड़ता है. 

दूसरा, भारतीयों में कर चुकाने से परहेज का कारण कर दरों का अधिक होना नहीं है. कर दायरे को घटाने के बावजूद करदाताओं की संख्या बढ़ने का कोई संकेत नहीं मिल रहा है. इस स्थिति को बदलने के लिए सरकार के पास कठोर होने या दंड देने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचता है. वर्ष 1965 से 1993 के बीच भारत में आयकर नियमों के पालन पर आधारित अध्ययन का निष्कर्ष था कि ‘दबाव डालने के पारंपरिक तौर-तरीकों (जांच, अर्थदंड और दंडात्मक कार्रवाई) का भारतीयों पर सीमित असर ही हुआ है' तथा पालन पर ‘गहन निर्धारण में कमी से गंभीर नकारात्मक असर' पड़ा है. अध्ययनकर्ता इस तथ्य को लेकर परेशान थे कि ‘भारत का आयकर लेखा-जोखा उन देशों के औसत से नीचे है, जिनकी प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पादन की दर भारत के बराबर है.' 

तीसरा, उच्चवर्ग के लोग भारतीय किसानों पर आयकर में योगदान न देने का दोष मढ़ते हैं, क्योंकि कृषि को आयकर से छूट मिली हुई है. लेकिन, किसानों में ज्यादातर लोग भले ही वंचित न हों, गरीब जरूर हैं. सही मायने में दोष सिर्फ शहरी 'फार्म हाउस' खेतिहरों को दिया जा सकता है, जो अन्य आर्थिक गतिविधियों से भी जुड़े होते हैं. यह एक हकीकत है कि हजारों सालों से सिर्फ किसान ही कर चुकाता रहा है. यदि स्वतंत्र भारत में उसे कुछ राहत मिली है, तो यह उस पर कोई अहसान नहीं है. 

चौथा, विकसित और समृद्ध देशों में, जिनमें अधिकतर यूरोपीय और उत्तर अमेरिकी हैं, कर और सकल घरेलू उत्पादन का अनुपात औसतन 34 फीसदी है. डेनमार्क जैसे कुछ विकसित देशों में यह अनुपात 50 फीसदी से अधिक है. भारत का अनुपात 10 फीसदी है. इसमें बढ़ोतरी किये बिना हमारा विकास नहीं हो सकता है. वर्ष 2014 में चीन में यह आंकड़ा दोगुना होकर 19 फीसदी हो चुका है. हमारे यहां बढ़त का कोई संकेत नहीं है. 

पांचवां, कुल कर राजस्व में आधा हिस्सा प्रत्यक्ष करों से आता है. वर्ष 2015-16 में यह 51 फीसदी था, जो बीते 10 सालों में सबसे कम था. इसका मतलब यह है कि अप्रत्यक्ष कर (बिक्री कर आदि) बढ़ता जा रहा है. यह दुर्भाग्यपूर्ण है, क्योंकि अप्रत्यक्ष करों से सभी भारतीय प्रभावित होते हैं, जिनमें गरीब भी शामिल हैं जिन्हें सामानों और सेवाओं के लिए अधिक मूल्य चुकता करना पड़ता है. इसका समाधान सिर्फ उच्च वर्ग द्वारा आयकर नियमों के अधिकाधिक पालन के जरिये ही किया जा सकता है. 

छठा, भारत में कर चोरी धनी वर्ग भी करता है और निम्न वर्ग भी. भारत के विभिन्न वर्गों में शुचिता, नैतिकता, संस्कृति और कर चुकाने से संबंधित व्यवहार में कोई अंतर नहीं है, भले ही वे शिक्षित हों या न हों. शहरी, शिक्षित और करदाता भारतीयों के लिए हम बहुत लंबे समय से ‘मध्य वर्ग' शब्द का प्रयोग करते आ रहे हैं. अब हमें पता चल गया है कि इनकी संख्या मात्र एक फीसदी है. ऐसे लोगों को हम मध्य वर्ग नहीं कह सकते हैं. ये लोग उच्च वर्ग हैं. 

जब तक अन्य भारतीय अपना कर चुकाने से इनकार करते रहेंगे, हमारे पास बड़ी 'ब्लैक' अर्थव्यवस्था का अस्तित्व बना रहेगा. यदि हम अपने देश को महान बनाना चाहते हैं, तो हमें अपने व्यवहार में बदलाव करना होगा. उल्लेखनीय है कि करदाताओं की अधिकतर संख्या वेतनभोगी लोगों की है, जिनका कर वेतन में से ऑटोमैटिक रूप से काट लिया जाता है और उनके पास कर नहीं देने का विकल्प नहीं होता है. इस तथ्य की रोशनी में करदाताओं की वास्तविक संख्या बहुत ही कम रह जाती है. 

ऐसी स्थिति के जारी रहने की दशा में हम स्वयं को सामान्य देश के रूप में नहीं देख सकते हैं. हर व्यक्ति को आत्ममंथन करने की आवश्यकता है, और हमें यह भी स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए कि इस समस्या के लिए हम सरकार को नहीं, बल्कि भारतीय नागरिकों को ही दोष दे सकते हैं.

http://www.prabhatkhabar.com/news/columns/story/800615.html


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