Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 150
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 151
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Warning (512): Unable to emit headers. Headers sent in file=/home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php line=853 [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 48]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 148]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 181]
न्यूज क्लिपिंग्स् | जो अन्न उपजाता है वही भूखा रह जाता है : देविंदर शर्मा

जो अन्न उपजाता है वही भूखा रह जाता है : देविंदर शर्मा

Share this article Share this article
published Published on Aug 26, 2013   modified Modified on Aug 26, 2013

खाद्य सुरक्षा विधेयक का विरोध दो कारणों से हो रहा है. एक राजनीतिक और दूसरा कॉरपोरेट घरानों या उनके समर्थक अर्थशास्त्रियों की ओर से. उनका कहना है कि खाद्यान्न सुरक्षा पर हर साल एक लाख 25 हज़ार करोड़ रुपये  खर्च होगा. इससे घाटा बढ़ेगा इसलिए इसकी कोई ज़रूरत नहीं है. खाद्यान्न सुरक्षा पर हर साल एक लाख 25 हज़ार करोड़ रु पए ख़र्च होने पर एतराज़ जताया जा रहा है. लेकिन, कॉरपोरेट घरानों को 2005-06 से अब तक सरकार 32 लाख करोड़ रु पए की टैक्स माफी दे चुकी है, जिसका कोई ज़िक्र  नहीं करता. सरकार ने उद्योगपतियों को टैक्स माफ़ी का नियम लागू करते हुए तब कहा था कि देश की अर्थव्यवस्था को बढ़ाने के लिए टैक्स माफ़ी दी जा रही है.

आज उद्योग क्षेत्र में विकास ऋणात्मक है. मई के महीने में इसकी दर -1.9 प्रतिशत रही. मैन्यूफ़ैक्चरिंग सेक्टर को बरबाद कर दिया गया है, रोज़गार बढ़ नहीं रहा है. तो फिर सवाल पैदा होता है कि कॉरपोरेट को दिया गया 32 लाख करोड़ रु पया कहां गया? इसका मतलब है कि ये रक़म कुछ घरानों की जेब में गयी. पर, किसी ने इस बारे में कुछ नहीं कहा. कोई अर्थशास्त्री और कोई कॉरपोरेट इस बारे में सवाल नहीं करता. लेकिन ग़रीबों के लिए सवा लाख करोड़ रु पया ख़र्च करने पर सबके पेट में ऐंठन होती है.

कहने का अर्थ यह क़तई नहीं है कि खाद्यान्न विधेयक आलोचना से परे है. पर इस विधेयक के बारे में ख़ास बात ये है कि पहली बार क़ानूनी तौर पर ग़रीबों को हर महीने एक निश्चित मात्र में और निश्चित क़ीमत पर अनाज मिलने की गारंटी होगी. अगर नहीं मिलता तो सरकारी अमले के ख़िलाफ़ क़ानूनी कार्रवाई हो सकती है. देश में कृषि पैदावार को ध्यान में रखते हुए पांच किलो प्रति माह का कोटा रखा गया है. अगर इसे सात किलो कर दिया जाए तो इतनी पैदावार है ही नहीं.

सरकारी आंकड़े बताते हैं कि देश में 21.9 प्रतिशत लोग ग़रीबी रेखा से नीचे हैं. स्पष्ट है कि दोनों वक्त की रोटी न पाने वालों की संख्या इससे कम ही होगी. अमरीका में हर चार में से एक आदमी ग़रीब है और हर सात में से एक भूखा है. भारत में भी भूखों का आँकड़ा ग़रीबों से कम होना चाहिए. पर सरकार कहती है कि वो 67 प्रतिशत लोगों को खाद्यान्न देने का इंतज़ाम कर रही है. इससे साफ़ ज़ाहिर होता है कि मनमोहन सिंह सरकार ग़रीबों को खाना मुहैया करवाने के लिए नहीं बल्कि उनके वोटों के लिए ये विधेयक ला रही है. होना ये चाहिए था कि 21.9 प्रतिशत ग़रीबों को सात या दस किलो अनाज दिया जाना चाहिए था और उनसे बेहतर स्थिति वाले लोगों को पांच की बजाए तीन किलो प्रति व्यक्ति प्रति महीना अनाज दिया जाना चाहिए था.

इंडियन काउंसिल ऑफ़ मेडिकल रिसर्च के आंकड़े कहते हैं कि एक व्यक्ति को पोषण के लिए महीने में 12 किलो अनाज की ज़रूरत पड़ती है. पर नए खाद्य सुरक्षा क़ानून में उसकी बजाए एक व्यक्ति को सिर्फ पांच किलो अनाज दिये जाने की व्यवस्था है. होना ये चाहिए था कि ग़रीबी की रेखा से नीचे रहने वाले लोगों को 12 किलो अनाज प्रति व्यक्ति मिलता, बाक़ी लोगों को भले ही कुछ कम भी दिया जाता तो ठीक था.


भूखा किसान
इस योजना का सबसे बुरा असर खेती और किसानों पर पड़ेगा. संयुक्त राष्ट्र कहता है कि दुनिया में जितने भी भूखे लोग हैं, उनमें से 50 फ़ीसदी किसान हैं. भारत में भी यही प्रतिशत माना जाये तो जो किसान अन्न उपजाता है वही भूखा रहता है. इसलिए जब तक अन्न उपजाने वाले की भूख मिटाने के लिए काम नहीं किया जाएगा तब तक बात नहीं बनेगी. सरकार ने खाद्य सुरक्षा विधेयक को खेती से नहीं जोड़ा है. स्थिति ये है कि कृषि पैदावार तो बढ़ जाती है पर दूसरी ओर किसानों की आत्महत्या नहीं रु क रही. सरकार किसानों के कल्याण के लिए कुछ नहीं कर रही. अगर इस ओर नहीं देखा गया तो हम खाद्यान्न के आयात की स्थिति में पहुंच जाएंगे, जैसी स्थिति ग्रीन रिवॉल्यूशन से पहले की थी.

पर सरकार खाद्यान्न सुरक्षा को कैश ट्रांसफ़र के ज़रिए हासिल करना चाहती है. राष्ट्रपति ने दोनों सदनों को संबोधित करते हुए इस बारे में कुछ ही दिन पहले ऐलान किया है. उन्होंने कहा था कि अनाज का कोटा आख़िरकार लोगों को कैश ट्रांसफ़र के रूप में मिलेगा. यानी दूसरी सब्सिडीज़ की तरह अनाज के कोटे के बदले लोगों के बैंक अकाउंट में सरकार सीधे रु पया डाल देगी. इसके परिणाम भयंकर होने वाले हैं.

नक़दी या कूपन मिलने के बाद गांव में रहने वाला आदमी किसी भी दुकान से राशन ख़रीदने को आज़ाद होगा. इसलिए सरकारी सस्ते ग़ल्ले की दुकानों की ज़रूरत नहीं रहेगी. और जब सरकारी ग़ल्ले की दुकानों की ज़रूरत नहीं रहेगी तब सरकार को समर्थन मूल्य देकर किसानों से अनाज ख़रीदने का दबाव भी नहीं रहेगा. इसकी तैयारियां शुरू हो चुकी हैं.

खाद्य  मंत्रालय एक योजना लेकर आ रही है जिसके मुताबिक़ सरकार किसानों से कम अनाज ख़रीदेगी. फिलहाल सरकार किसानों से आठ सौ लाख टन अनाज ख़रीदती है. अब उसे कम करके दो सौ लाख टन किया जा रहा है. बाक़ी बाज़ार के हवाले छोड़ दिया जाएगा. इसका मतलब ये हुआ कि किसानों को मिलने वाले न्यूनतम समर्थन मूल्य में भी कमी हो जाएगी और किसान बाज़ार की दया पर निर्भर रह जाएँगे.

विकराल बेरोज़गारी
खाद्यान्न सुरक्षा विधेयक को लेकर विपक्ष की कई आशंकाएँ हैं. कॉरपोरेट घराने यही चाहते हैं. वो चाहते हैं कि खेती का कॉरपोरेटीकरण कर दिया जाए. ठीक वैसे ही जैसे अमरीका और यूरोप में किया गया. अगर किसानों को उनकी खेती से अलग किया गया तो 60 करोड़ लोगों के भविष्य पर सवालिया निशान लग जाएगा. आप इनमें से चालीस करोड़ लोगों को भी रोज़गार मुहैया नहीं करवा सकते.

भारत में 2004 और 2009 के बीच में जब विकास दर नौ प्रतिशत थी, तब 140 लाख लोगों ने खेती छोड़ी थी और मैन्यूफ़ैक्चरिंग क्षेत्र में भी 53 लाख लोगों की नौकरियां गईं. इसलिए ये नहीं कहा जा सकता कि खेती छोड़कर गांव के किसान कारख़ानों में नौकरी पा जाएंगे. खेती को नष्ट करके कुछ हासिल नहीं किया जा सकता. अमरीका में भले ही खेती के काम में एक प्रतिशत लोग ही रह गए हों. पर वो उसे पूरी तरह नियंत्रित किए हुए हैं. क्योंकि वो जानते हैं कि वो दुनिया में तभी दबदबा बनाए रख सकते हैं जब उनके पास खाना हो. अगर भारत की खेती कंपनियों को दे दी जाएगी तो बेरोज़गारों की बाढ़ आ जाएगी और उसके ख़तरनाक सामाजिक-आर्थिक परिणामों की कल्पना तक अभी किसी ने नहीं की है.

विश्व बैंक ने 1996 में वल्र्ड डेवलपमेंट रिपोर्ट में कहा था कि 2015 तक भारत के देहातों से शहर आने वालों की संख्या ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी की संयुक्त जनसंख्या से दोगुनी होगी. इन तीनों देशों की जनसंख्या 20 करोड़ है. यानी उनका अनुमान था कि 40 करोड़ लोग भारतीय देहातों से शहरों में आ जाएँगे. ये नहीं हो पाया है इसलिए विश्व बैंक भारत से बहुत ख़ुश नहीं है. भारत सरकार भी चाहती है कि देहात के लोग खेती किसानी छोड़कर शहरों में जाएँ. पर शहरों में रोज़गार कहाँ है? शहरों में परेशानियाँ बढ़ रही हैं. विकास का ये कैसा मॉडल होगा जिसमें खेती करेंगी कॉरपोरेट कंपनियाँ और अपनी ज़मीन से बेदख़ल किसान शहरों में रोज़गार तलाशने को दर दर भटकेंगे?


http://www.prabhatkhabar.com/news/37614-story.html


Related Articles

 

Write Comments

Your email address will not be published. Required fields are marked *

*

Video Archives

Archives

share on Facebook
Twitter
RSS
Feedback
Read Later

Contact Form

Please enter security code
      Close