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न्यूज क्लिपिंग्स् | शहर अंदर ‘समंदर’- शिरीष खरे की रिपोर्ट(तहलका, हिन्दी)

शहर अंदर ‘समंदर’- शिरीष खरे की रिपोर्ट(तहलका, हिन्दी)

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published Published on May 17, 2012   modified Modified on May 17, 2012

यह राजस्थान में जोधपुर शहर के यूएस बूट हाउस का एक जादुई बेसमेंट है. जादुई इसलिए कि यह शहर शुष्क रेगिस्तान के मुहाने पर बसा है लेकिन इस बेसमेंट में बारहमासी पानी रिसता रहता है. हालांकि इसकी नींव में कई सालों से पानी रिसता रहा है, लेकिन बीते दो साल से पानी इस स्तर तक बढ़ गया कि पांच पंपों से 24 घंटे पानी उलीचने पर भी यह कम होने का नाम नहीं लेता. हैरानी की बात है कि यह हाल बरसात के पानी से नहीं बल्कि जमीन से रिसने वाले पानी की वजह से हुआ है. इस बेसमेंट के मालिक हरीश मखीजानी की परेशानी यह है कि अगर उन्होंने पंपों को थोड़ा भी आराम दिया तो उनका पूरा माल पानी में तैर जाएगा. उनकी दूसरी परेशानी यह है कि उनकी दुकान शहर के एक प्रमुख स्थान पर है यानी उनके लिए कहीं दूर जाने का मतलब है उनका धंधापानी चौपट हो जाना. इसलिए जब कभी बिजली जाती है तो उन्हें जेनरेटर से पंप चलाकर पानी नालियों में बहाना पड़ता है. यह परेशानी सोजती गेट, त्रिपोलिया, चांदपोल, नवचौकिया, पावटा और घंटाघर सहित पुराने शहर के उन तमाम दुकानदारों और मकान मालिकों की भी है जिन्हें पंपों से रात और दिन तलघरों से पानी उलीचने के सिवाय कोई दूसरा चारा दिखाई नहीं देता.

थार मरुस्थल का हृदय जोधपुर कभी पानी का मोहताज हुआ करता था. आज यही शहर पानी-पानी हो गया है. विशेषज्ञों के मुताबिक थार सहित उत्तर भारत के कई इलाकों का भूजल दो से चार मीटर सालाना की दर से नीचे उतर रहा है लेकिन इसके उलट जोधपुर का भूजल एक से डेढ़ मीटर ऊपर चढ़ रहा है. आलम यह है कि कुएं मीठे पानी से लबालब हैं. नलकूप खोदो तो पूरा समंदर मिल जाता है और छोटे से छोटा निर्माण करो तो जमीन से पानी का फव्वारा फूट पड़ता है. सोजती गेट के एक प्राइवेट स्कूल में कुछ महीने पहले जमीन से पानी अपने आप फूट पड़ा. स्कूल प्रबंधन द्वारा कई पंप चलाने पर भी पानी आने का सिलसिला है कि टूटता ही नहीं. जल जमाव के चलते ही राजस्थान हाई कोर्ट में 60 वकीलों के चैंबर वाला जुबली चैंबर बदलना पड़ा. राज्य का भूजल विभाग बताता है कि शहर में भूजल स्तर कम होने की बजाय तेजी से बढ़ ही रहा है. कहीं-कहीं तो यह जमीन से कुछ सेंटीमीटर ही नीचे रह गया है. यानी इन इलाकों की जमीन हमेशा गीली ही बनी रहती है.

आज यकीन करना मुश्किल है कि डेढ़ दशक पहले तक इन्हीं इलाकों का भूजल पाताल छुआ करता था.  1995 तक जोधपुर की जलापूर्ति पूरी तरह भूजल पर निर्भर थी. लेकिन इसके बाद इंदिरा सागर नहर (इस नहर में सतलुज और व्यास नदी का पानी आता है) से निकली एक शाखा के जोधपुर पहुंचने पर शहर में भूजल का उपयोग लगभग बंद हो गया. साथ में यह भी हुआ कि 19वीं सदी में बनाई गई जोधपुर की कायलाना झील उसकी वास्तविक क्षमता से कहीं अधिक भरी जाने लगी. पीएचईडी के मुताबिक अब शहर में 20 करोड़ लीटर प्रतिदिन की दर से जलापूर्ति की जाती है. इन दिनों एक आदमी पर रोजाना 140 लीटर पानी खर्च किया जाता है. जाहिर है शहर में जल का उपयोग कई गुना बढ़ा है. मगर रेगिस्तान को हरा बनाने के लिए भारी मात्रा में लाए गए हिमालयी पानी का उचित प्रबंधन नहीं कर पाने का खामियाजा जोधपुर को भुगतना पड़ रहा है. यही पानी अपनी अधिकता की वजह से शहर के लिए अभिशाप बन गया है. जोधपुर में बढ़ते जलस्तर की समस्या को वैज्ञानिकों द्वारा राजीव गांधी नहर परियोजना से जोड़कर देखा जा रहा है. मगर वैज्ञानिकों के कई निष्कर्ष एक-दूसरे से अलग-थलग और विरोधाभासी हैं जिससे स्थिति रहस्यपूर्ण और समाधान और मुश्किल बन रहा है.

2009 से शहर के गोदामों (बेसमेंट) में आया पानी जब वापस जमीन में नहीं गया और समस्या विकराल होने लगी तो जोधपुर विकास प्राधिकरण ने शहर के भीतर नए गोदाम बनाने पर सख्ती से रोक लगा दी. जोधपुर के एक बिल्डर नगराज कोठारी का मानना है कि गोदामों से तो फिर भी पानी उलीच लिया जाता है लेकिन शहर में कई नई-पुरानी इमारतों की नींव में भी पानी जमा हो रहा है और उसकी वजह से वे बहुत कमजोर हो गई हैं. यहां कई इमारतों में सीलन की परतें और दीवारों पर दरारें साफ दिखती हैं. शहर के चेतानिया की गली में मकानों के धंसने की घटनाएं भी हो चुकी हैं. मालवीय नगर प्रोद्यौगिकी संस्थान, जयपुर के प्रोफेसर और सिविल इंजीनियर अजय जेठू के कहते हैं, 'ऐसा लगता है कि जोधपुर की कई कमजोर इमारतें पानी के ऊपर तैर रही हैं. डर है कि भूकंप का मामूली झटका भी कहीं इस ऐतिहासिक शहर को पानी के साथ बहा न ले जाए.'

जोधपुर राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का विधानसभा क्षेत्र भी है.  2009 में राज्य सरकार ने भूजल रिसाव से निजात पाने के लिए एक आपातकालीन योजना के तहत 12.27 करोड़ रुपये मंजूर किए थे. तब से पीएचईडी द्वारा शहर के चार जोन में दस हॉर्सपवर के 89 पंप लगाकर रात-दिन भूजल उलीचने का काम चालू है. विभाग के मुख्य अभियंता बीसी माथुर के मुताबिक इस तरह प्रतिदिन 3.5 करोड़ लीटर भूजल उलीचा जा रहा है. विभाग द्वारा भूजल कम करने की इस दिलचस्प कवायद में बीते साल 48 लाख रुपये बिजली का बिल जमा किया गया. विभाग ने अभी तक इस तस्वीर का अंदाजा नहीं लगाया है कि जब शहर में पंपिंग पूरी तरह से रोक दी जाएगी तब क्या स्थिति होगी.

आखिर जोधपुर का भूजल खतरनाक स्तर तक क्यों बढ़ रहा है? बीते एक दशक में इस सवाल को लेकर कई नामी संस्थानों के विभिन्न अध्ययन सामने आए हैं. इनमें केंद्रीय भू-जल बोर्ड, जोधपुर विश्वविद्यालय, राजस्थान भू-जल विभाग, इसरो का आरआरएसएससी यानी राजस्थान रीजनल रिमोट सेंसिंग सर्विस सेंटर, बार्क यानी भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र (मुंबई), राष्ट्रीय भूभौतिकी अनुसंधान संस्थान (हैदराबाद) और राष्ट्रीय जल विज्ञान संस्थान (रुड़की) खास हैं.  2001 में केंद्रीय भूजल बोर्ड और जोधपुर विश्वविद्यालय ने जोधपुर के भूजल में आ रहे बदलाव को लेकर एक अध्ययन किया था. उन्होंने समस्या के तीन कारण बताए. पहला यह कि जोधपुर में राजीव गांधी नहर आने के बाद जल का उपयोग कई गुना बढ़ गया और यह पानी भारी मात्रा में रिसकर जमीन के भीतर ही जा रहा है.  हिमालयी पानी मिलने से शहर के सैकड़ों पारंपरिक जलस्त्रोतों का उपयोग बंद होना दूसरा कारण बताया जाता है. तीसरा कारण यह बताया जा रहा है कि समय के साथ शहर की आबादी और जलापूर्ति में भारी बढ़ोतरी से पाइपलाइनों पर जबरदस्त दबाव बना और ये जगह-जगह लीक हो रही हैं. जोधपुर के भूजल विशेषज्ञ  स्व. बीएस पालीवाल के एक अध्ययन के मुताबिक इन कारणों ने मिलकर जोधपुर में जलरिसाव को गंभीर बनाया है.

लेकिन कुछ जानकारों की दलील है कि गोदामों में आने वाला पानी इतना साफ और बदबूरहित है कि इसे पाइपलाइन से लीक हुआ पानी नहीं माना जा सकता. उधर, कुछ का मानना है कि तीनों कारणों से जलरिसाव बढ़ तो सकता है लेकिन इस हद तक भी नहीं.  2001 में ही राजस्थान भूजल विभाग और इसरो के आरआरएसएससी का अध्ययन बताता है कि कायलाना झील की ऊंचाई शहर से काफी अधिक है और झील से शहर की तरफ 40 मीटर की एक ढलान है. सेटलाइट चित्रों में पाया गया कि झील और शहर के बीच भूगर्भीय दरारें हैं. 1995 के बाद झील का जलस्तर जब 45 मीटर की ऊंचाई से बढ़ाकर 55 मीटर तक कर दिया गया तो भूगर्भीय चट्टानों में बहुत अधिक दबाव पड़ने से उनमें दरारें बढ़ गईं. झील का पानी इन्हीं दरारों से रिसकर शहर के भूजल स्तर को बढ़ा रहा है. आरआरएसएससी के वैज्ञानिक डॉ बीके भद्र बताते हैं कि उन्होंने अपनी बात को पुख्ता करने के लिए झील से एक किलोमीटर दूर और दरारों के बीच दो कुएं खोदे. उन्होंने जल की माप की निगरानी के दौरान इन कुओं की तुलना उनके आस-पास और बिना दरारों पर स्थित बाकी कुओं से की. उन्होंने पाया कि बाकी कुओं का पानी खारा है लेकिन इन दोनों कुओं का पानी हिमालयी यानी झील का है. बाकी कुओं का जलस्तर बहुत नीचे है लेकिन दोनों कुंओं का जलस्तर काफी ऊपर है. उसके बाद बार्क (मुंबई) ने भी पाया कि झील और शहर के गोदामों में आया पानी समान है और कायलाना झील के रिसाव को समस्या की एक बड़ी वजह माना जा सकता है.

2009 में जब जोधपुर का भूजल स्तर अचानक तेजी से बढ़ने लगा तो देश के दो अन्य संस्थानों से अध्ययन कराए गए. इन संस्थानों ने राज्य भूजल विभाग, आरआरएसएससी और बार्क के निष्कर्षों से असहमति जताई. 2010 में राष्ट्रीय भूभौतिकी अनुसंधान संस्थान (हैदराबाद) ने सेटलाइट चित्रों से बताया कि कायलाना झील और शहर के बीच की चट्टानों में कुछ दरारें जरूर हैं लेकिन ये इतनी बारीक हैं कि उन्हें जोधपुर में जल रिसाव के लिए जिम्मेदार नहीं माना जा सकता. इस संस्थान के मुताबिक जोधुपर के भूजल की स्थिति पर अब तक की समझ काफी नहीं है और इस पर और अधिक काम करने की जरूरत है.

2011 में राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान (रूड़की) ने अपने अध्ययन में जलापूर्ति और निकासी के बीच भारी असंतुलन को समस्या की वजह माना. इस संस्थान के वैज्ञानिक डॉ एनसी घोष के मुताबिक जोधपुर में 16 साल से भूजल का उपयोग बंद है. दूसरी तरफ बाहरी स्त्रोत से बड़े पैमाने पर जलापूर्ति जारी है. इससे भूगर्भ में पानी कई परतों के बीच तालाब की तरह जमा हो रहा है. इसलिए जमीन में जल का संतुलन बिगड़ गया है और वह पहले की तरह बाहर नहीं निकल पाने से बढ़ता जा रहा है.

मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने भी फिलहाल जमीन में जल असंतुलन को समस्या की मुख्य वजह मानते हुए प्रशासन को युद्ध स्तर पर काम करने की हिदायत दी है.  प्रशासन ने भी बीते दो साल में काफी भूजल उलीच डाला है. वहीं रहवासियों का मानना है कि जब मटकी से पानी पिया जाता है तो उसमें पानी कम होता ही है. मगर लंबे अंतराल तक भूजल उलीचने पर भी कोई विशेष अंतर नहीं आने से स्थिति उलझ गई है.  ऐसे में शहर की दुर्दशा को दूर करने का कोई दूरदर्शी समाधान खोजने की मांग उठ रही है क्योंकि भूजल उलीचने की इस सतत क्रिया में भारी बिजली तो खर्च हो ही रही है, बड़े स्तर पर निवेश करके हिमालय से जोधपुर तक लाए गए पानी की बर्बादी भी बढ़ती जा रही है.


http://www.tehelkahindi.com/indinoo/national/1219.html


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