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न्यूज क्लिपिंग्स् | सूने होते गांव-- चंदन चौधरी

सूने होते गांव-- चंदन चौधरी

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published Published on Dec 26, 2017   modified Modified on Dec 26, 2017

एक जमाना था जब कहा जाता था ‘उत्तम खेती, मध्यम बान, अधम चाकरी भीख निदान।' इस कहावत के अर्थ से मेरा गांव भी अछूता नहीं था। जम कर खेती की जाती थी और तब महात्मा गांधी के सपनों के सुराज का प्रभाव यहां दिखता था। यों मेरा गांव बहुत छोटा है, लेकिन अंदर से इतना बड़ा कि यहां सभी लोग आपस में वर्षों से मिलजुल कर और सौहार्द से रहते थे। एक और तरह से कहें तो गांव खुद पर निर्भर था और बाहरी चीजों पर इसकी निर्भरता बहुत कम थी।

 

लेकिन अब हालात पहले जैसा नहीं रहे। भूमंडलीकरण और बाजारवाद के दौर में बड़े पैमाने पर गांव से पलायन होना शुरू हुआ। पलायन मतलब गांव से रिश्ता खत्म होने की शुरुआत। पहले-पहल लगा था कि यह असर आंशिक है और कुछ दिन ही रहेगा। रिश्ते के खत्म होने की शुरुआत की बात को मन नहीं स्वीकार करता था। जिस दौर में लोगों ने गांव छोड़ना शुरू किया, तब भी हमारे स्कूल की एक कक्षा में सौ से अधिक विद्यार्थी होते थे और धमा-चौकड़ी के बीच पढ़ाई-लिखाई का दौर चलता रहता था। संगी-साथी की संख्या में कभी कमी महसूस नहीं की।

 

हालांकि देश के दूसरे अधिकतर गांवों की तरह मेरे गांव में भी मैट्रिक की पढ़ाई के बाद आगे शिक्षा ग्रहण करने के लिए शहर जाने के सिवा और कोई विकल्प नहीं था। जब गांव छूटा तो लगा कि बस मैं गांव छोड़ रहा हूं, बाकी तो सब कुछ और सब लोग ऐसे ही रहेंगे। लेकिन सोचा हुआ कभी होता है क्या? मेरा गांव आज की तारीख में पूरी तरह बदल चुका है। मैट्रिक के बाद गांव छोड़े सत्रह साल से अधिक का समय बीत गया और वक्त के साथ-साथ गांव भी बदल गया है।

 

अब जब गांव जाता हूं तो पुराने संगी-साथी नजर नहीं आते हैं। सभी नौकरी और बेहतर जीवन की तलाश में शहर की ओर चले गए हैं। गांव का मतलब बूढ़े, लाचार और महिलाओं के रहने की जगह। युवा तो ढूंढ़ने से नहीं मिलेंगे शायद। कभी-कभार, काज-प्रयोजन में सब गांव आते हैं। काम खत्म और फिर सब शहर वापस। गांव में वही बूढ़े-बुजुर्ग लोग बच गए हैं जो अब शहर की जिंदगी के साथ कदमताल नहीं मिला सकते या उन्हें अभी भी गांव में अपना घर और अपनी जमीन प्यारी है और वह उसे नहीं छोड़ना चाहते हैं। मेरे गांव में तो अब कई घर ऐसे हैं, जहां ताला लटका रहता है। समर्थ लोगों ने अपने बुजुर्ग मां-बाप को भी वहीं शहर में बुला लिया है। हां, किसी-किसी घर में कुछ महिलाएं अपने बच्चों के साथ जरूर रहती हैं। ये वैसी महिलाएं और बच्चे हैं, जिन्हें उनके पति या पिता शहर नहीं ले जा सकते और अधिक आमदनी नहीं होने के कारण उसका भरण-पोषण नहीं कर सकते।

 

कुछ ऐसी भी खबरें मिली कि लोग अपनी जमीन-जायदाद भी बेच रहे हैं और गांव से पूरी तरह मुंह मोड़ कर शहर में बसना चाह रहे हैं। सोच रहा हूं कि लोग ऐसा क्यों करने लगे हैं। खून-पसीने से सींचे गए अपने पुरखों की जमीन-जायदाद को इस तरह से बेचने की बात कहां तक जायज है। लेकिन फिर लगता है कई सरकारें आर्इं और गर्इं, लेकिन किसी ने भी कुछ नहीं किया। दावे बहुत हुए, लेकिन धरातल की हकीकत नहीं बदली। आज की तारीख में लोग गांव में खेती नहीं करना चाहते है। बल्कि यह कहा जाना चाहिए कि खेती करने लायक उन्हें छोड़ा नहीं गया। उन्हें लगता है कि लागत तक वापस नहीं आ रही है तो फिर कैसे खेती करें। गांव की अर्थव्यवस्था की रीढ़ खेती-बाड़ी की हालत आज खस्ता है।


सवाल है कि क्या बेहतर जिंदगी की सुविधा सिर्फ शहरी लोगों को मिलनी चाहिए। वह सुविधा तो गांव में रहने वाले मेहनतकश इंसान को भी मिलनी चाहिए। और ऐसा कभी संभव हुआ नहीं, सिवाय इस शोर के कि भारत गांवों का देश है। ऐसा हुआ होता तो गांव में शिक्षक, बैंक में काम करने वाले लोग रहने के लिए छोटे-बड़े शहरों में जाकर नहीं रहते। कई ऐसे लोगों से मुलाकात हुई है जो दिल्ली या मुंबई में नौकरी करते हैं और परिवार को साथ में नहीं रख पाने के सामर्थ्य के कारण पत्नी और बच्चों को छोटे-छोटे शहरों में रख रहे हैं, लेकिन गांवों में नहीं। रहने के विकल्प के रूप में शहर ही होते हैं, चाहें छोटे हों या बड़े शहर। गांव रहने की सूची से बाहर हो गए हैं। जिस तरह गांव बिखर रहे हैं, वैसी स्थिति में मुझे नहीं लगता कि भारत निर्माण संभव है। गांव निर्माण के लिए सरकार, प्रशासन और लोग सच्चे मन से कुछ प्रयास करते, शहरों में मौजूद सुविधाएं गांवों में भी मुहैया कराई जातीं तो लोग शायद इस तरह पलायन नहीं करते।


https://www.jansatta.com/duniya-mere-aage/why-people-leaving-their-village/529750/


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