विगत दिनों दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में हुई घटना ने न केवल एक बड़ी बहस को जन्म दिया, बल्कि कुछ छद्म नायकों का भी सृजन किया. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ में देश-विरोध और विभाजन के स्वर उठे. बहस बजाय इस पर होने के कि ऐसी आवाजें क्यों उठीं और इनके पीछे क्या मंतव्य है, बहस का दायरा दोषी कौन है और कौन नहीं पर सिमट गया. जिस आजादी...
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‘भारत में आजादी’ का अर्थ-- रविभूषण
आजादी की लड़ाई में आजादी के स्वरूप और उसकी अवधारणा को लेकर बीसवीं सदी के बीस के दशक के मध्य से जो विचार-मंथन आरंभ हुआ था, वह 1947 की अधूरी राजनीतिक आजादी या सत्ता-हस्तांतरण के कुछ वर्ष बाद थम गया. रुक-रुक कर वास्तविक और मुकम्मल आजादी की बातें हुईं. ‘संपूर्ण क्रांति' का आंदोलन भी हुआ, पर कुछ समय बाद ही न उसमें गति रही, न शक्ति, और न इच्छाशक्ति ही...
More »हिंदुत्व के रथ का पांचवां पहिया- नीलांजन मुखोपाध्याय
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) से संबंधित विवाद को करीब डेढ़ महीने हो गए हैं और अब यह शुरू में जिन मुद्दों से संबंधित था, उससे व्यापक मुद्दों से जुड़ गया है। इस विवाद ने राष्ट्रीय आयाम हासिल कर लिया है और इसके शांत होने के लक्षण नहीं दिख रहे। सरकार और सत्तारूढ़ भाजपा ने अपने राजनीतिक हमलों को व्यापक बनाने के लिए इस अवसर का उपयोग किया और छद्म धर्मनिरपेक्षता...
More »पत्रकारिता का सुंदरकांड- नासिरुद्दीन
पत्रकारिता के बारे में समालोचना करते वक्त डर क्यों लगता है? क्या इसलिए कि लोकतंत्र के खंभों को पाक दामन माना जाता है? या इसलिए कि ये खंभे काफी ताकत रखते और समय-समय पर ताकत दिखाते भी हैं? अब यह तय करना मुश्किल होता जा रहा है कि चौथा खंभा, लोकतंत्र का भार उठाये है या वही लोकतंत्र पर भारी पड़ रहा है. चौथा खंभा यानी पत्रकारिता यानी अखबार, न्यूज...
More »आर्थिक उदय का वह नायक- संजय बारु
आज कच्चे तेल की कीमतों के गिरने पर दुनिया इस चिंता में दुबली हुई जा रही है कि इसका आर्थिक विकास पर कितना बुरा असर पड़ेगा। हालांकि कच्चे तेल के मामले में पूरी तरह आयात पर निर्भर भारत इस परिस्थिति पर न तो खुश होता दिखता है, और न ही दुखी। दरअसल, भारतीय नीति-नियंता उन कीमतों को नहीं भूल पाए हैं, जो उन्हें तेज वृद्धि के दौरान चुकानी पड़ी थी। उनका...
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