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छोटी सी पहल ने बदली सौ गांवों की तकदीर

कभी पानी को तरसते थे, आज साल भर में तीन फसल उगा रहे किसान राजस्थान के सौ गांवों के खेतों में फसल नहीं उगायी जाती थी, क्योंकि वहां सिंचाई के माकूल साधन नहीं थे. सिंचाई के लिए पानी की बात तो दूर, ग्रामीणों को पेयजल भी मयस्सर नहीं था. मुंबई की एक महिला कार्यकर्ता द्वारा किये गये अथक प्रयास के बाद आज उन गांवों में न सिर्फ लोगों को पेयजल मिल...

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मानवाधिकारों पर चंद खरी बातें - मृणाल पांडे

वर्ष 1950 में संयुक्त राष्ट्र संगठन ने विश्व स्तर पर मानवाधिकारों की व्याख्या करते हुए विश्वयुद्धों से घायल दुनिया को 10 दिसंबर के दिन सालाना मानवाधिकार दिवस मनाने का संदेश दिया था। उस व्याख्या का मसौदा बाइबिल के बाद दुनिया का सबसे अधिक अनूदित दस्तावेज बताया जाता है। लेकिन मानवाधिकार दिवसों की छह दशक से लंबी श्रंखला और उस पर तमाम गहन चिंतन-मनन के बाद भी दुनिया में मानवाधिकारों की,...

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मंशा नेक पर अभी तो मुमकिन नहीं - सुषमा रामचंद्रन

चार्ल्स डिकेंस के उपन्यास 'अ टेल ऑफ टू सिटीज" की मशहूर पंक्तियां हैं : 'वह सबसे बेहतरीन दौर था, लेकिन वह सबसे बदतर भी था।" दिल्ली सरकार के सम-विषम फॉर्मूले के परिप्रेक्ष्य में हम डिकेंस के इस संवाद को बदलकर यूं भी कर सकते हैं कि 'वह एक बेहतरीन विचार था, लेकिन वह बदतर भी था!" हां, यह जरूर है कि दिल्ली सरकार के इस निर्णय के बाद इस महानगर...

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आपदा राहत की उलझी कड़ियां-- शैलेन्द्र चौहान

भारत में लोगों को आपदा से बचाना या तत्काल राहत पहुंचाना किसकी जिम्मेदारी है? पिछले पांच दशक से सरकार भी इस यक्ष प्रश्न से जूझ रही है। दरअसल, आपदा प्रबंधन तंत्र की सबसे बड़ी समस्या यह है कि लोगों को कुदरती कहर से बचाने की जिम्मेदारी कई महकमों पर है। जब लोग बाढ़ में डूब रहे होते हैं, भूकंप के मलबे में दब कर छटपटाते हैं या फिर ताकतवर तूफान...

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चेन्नई बाढ़ : एक मानव निर्मित त्रासदी

चेन्नई की बाढ़ जलवायु परिवर्तन के गंभीर परिणामों का एक भयावह उदाहरण तो है ही, इससे हुई तबाही ने मानव समाज की खतरनाक गलतियों के नतीजों को भी रेखांकित किया है.  हाल के वर्षों में उत्तराखंड, कश्मीर समेत देश के विभिन्न इलाकों में बाढ़ की त्रासदी का कहर लगातार बढ़ा है. तेज शहरीकरण और विकास की आपाधापी में सरकार और समाज प्राकृतिक तंत्रों को बेतहाशा बरबाद कर रहे हैं. नदियां...

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