अपनी चुनावी यात्र के दौरान सुप्रिया शर्मा ने महसूस किया कि पूर्वी उत्तर प्रदेश के मतदाता आज भी जाति, समुदाय और धर्म से अलग कुछ भी सोचने को तैयार नहीं हैं, वे भी नहीं जिनके बच्चे गंभीर रूप से बीमार हैं. जाति के प्रति उनका आग्रह बहुत कुछ कहता है. पिछले हफ्ते जब मैंने महामारी वार्ड संख्या 12 का दौरा किया था तो वहां का माहौल दूसरे दिनों के मुकाबले बेहतर था. वहां...
More »SEARCH RESULT
समाजवाद की संभावना थे सुनील- अरुण कुमार त्रिपाठी
सुनील भाई से जब भी मिला, जहां भी मिला उन्हें एक जैसा ही पाया. वे रंग बदलनेवाले और रंग दिखानेवाले समाजवादी नहीं थे. उन्हें देख कर और याद कर मुक्तिबोध की बौद्धिकों पर व्यंग्य में की कही गयी कविता की पंक्तियां पलट कर कहने का मन करता है. मुक्तिबोध ने आज के बुद्धिजीवियों के लिए कहा था- ‘उदरंभरि अनात्म बन गये, भूतों की शादी में कनात से तन गये, लिया बहुत...
More »इतने ही नैतिक हैं तो पहले सामने क्यों नहीं आए- कुमार प्रशांत
किताबें बोलती हैं, कोई ऐसा कहता है, तो हम इसे भाषा का विन्यास मानकर हंस लेते हैं। लेकिन अभी दो किताबें आई हैं, जो बोल रही हैं। पहली किताब संजय बारू की है, जो बता रही है कि कैसे और किसने बनाया-बिगाड़ा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को-द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर : मेकिंग ऐंड अनमेकिंग ऑफ मनमोहन सिंह! फिर दूसरी किताब आई पूर्व कोयला सचिव पी सी पारेख की। यह करती है...
More »21वीं सदी में गांव की उम्मीद की डोर
रांची जिले के बुढ़मू में मनरेगा की एक योजना के तहत कुआं निर्माण का कार्य करती युवतियां इस बात का प्रमाण हैं कि 21वीं सदी में गांव को ऐसे कानून व कार्यक्रम मिले हैं, जिनसे उनका पलायन रुके व उन्हें घर पर ही रोजी-रोटी मिले. इस तरह के और भी कई कार्यक्रम व कानून हैं, जिससे गांवों की सूरत पिछली सदी की तुलना में काफी बदल गयी है. हालांकि इनके...
More »नमक के नए दारोगा- विकास नारायण राय
जनसत्ता 11 अप्रैल, 2014 : संसाधन घोटालों (कोयला, लोहा, गैस, तेल, रेत, जल, जंगल, जमीन) से बोझिल राजनीतिक वातावरण में, देश के शासन का ईमानदारी से संचालन, 2014 के चुनावी घोषणापत्रों की एक प्रमुख थीम है। तीस हजार करोड़ रुपए चुनाव में दांव पर लगाने वाले राजनीतिकों में होड़ है कि अगला ‘नमक का दारोगा’ कौन बनेगा! नमक जैसे सुलभ पदार्थ को औपनिवेशिक लूट का जरिया बनाए जाने की पृष्ठभूमि...
More »