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बाजार नहीं, जनहितैषी नीतियां बनाये सरकार- जोसेफ स्टिग्लिज

- अर्थशास्त्र के लिए 2001 में नोबल पुरस्कार जीतनेवाले प्रो जोसेफ इ स्टिगलिट्स ने सोमवार को पटना में आद्री के स्थापना दिवस व्याख्यान में बाजार, सरकार व समाज की भूमिका से लेकर अमेरिका के संकट तक को बहुत आसान शब्दों में रखा और बताया कि पूंजीवाद को लगातार पुनर्परिभाषित करते रहने की जरूरत क्यों है. हमलोग उनके इस व्याख्यान के बरक्स अपनी सरकारों के नीतिगत फैसलों, बाजार की भूमिका और अपने समाज...

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बदनाम बैतूल- शिरीष खरे

मध्य प्रदेश का बैतूल जिला बलात्कार जैसे जघन्य अपराध के मामले में देश भर में शीर्ष पर है. कोई इसकी वजह गरीबी से जोड़ता है, कोई सरकारी संवेदनहीनता से, कोई नई-नई आई जागरूकता से और कोई तो लालच से भी. शिरीष खरे की रिपोर्ट. महिलाओं की सुरक्षा के मामले में देश की राजधानी दिल्ली हमेशा ही चर्चा के केंद्र में रही है. लेकिन दिल्ली से ठीक एक हजार किलोमीटर दूर एक जगह...

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खुला बाजार और बंद दिमाग- कुमार प्रशांत

जनसत्ता 11 दिसंबर, 2012: लंबे समय से देश के किसी भी गहरे सवाल पर, कोई भी सार्थक बहस करने में असमर्थ लोकसभा-राज्यसभा के सदस्यों के बीच दो दिन की भाषणबाजी के बाद यह फैसला हो गया कि भारत का खुदरा बाजार विदेशी पूंजी और विदेशी माल के लिए खोल दिया जाएगा। अरविंद केजरीवाल पूछते हैं कि भाई, जो खुदरा बाजार में अपना माल लेकर बैठता है और जो खरामां-खरामां उससे खरीदारी करने...

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पत्रकारों के लिए इन्कूलिसिव मीडिया फैलोशिप 2012-13- आवेदन की अंतिम तिथि बढ़ायी गई

  (आवेदन की अंतिम तिथि- 31 दिसंबर, सोमवार, 2012) विकासशील समाज अध्ययन पीठ( सीएसडीएस) की एक परियोजना इन्कूलिसिव मीडिया फॉर चेंज की तरफ से इन्कूलिसिव मीडिया फैलोशिप 2012-13 के लिए पत्रकारों से हिन्दी और अंग्रेजी भाषा में आवेदन आमंत्रित हैं। फैलोशिप का उद्देश्य ग्रामीण-विकास पर ध्यान खींचना है, खासकर सशक्तीकरण, विकेंद्रीकरण, कन्वर्जेंस तथा पंचायतों और स्थानीय निकायों द्वारा मौजूदा स्कीमों के बेहतर इस्तेमाल के जरिए होने वाले ग्रामीण विकास पर। इन्कूलिसिव मीडिया फॉर चेंज ग्रामीण भारत से संबंधित सूचनाओं, विचारों...

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इस असंतोष की जड़ें- पुण्य प्रसून वाजपेयी

जनसत्ता 8 नवंबर, 2012: बेचैनी हर किसी में है। आम आदमी की बेचैनी रोज-रोज की परेशानी से जूझते हुए पैदा हुई है। खास लोगों की बेचैनी सत्ता-सुख गंवाने के डर से उपजी है। विरोध में उठे हाथ गुस्से में हैं। गुस्सा जीने का हक मांग रहा है। सत्ता को यह बर्दाश्त नहीं है तो वह गुस्से में उठे हाथों को चिढ़ाने के लिए और ज्यादा गुस्सा दिलाने पर आमादा है। गुस्सा...

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