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कहां खो जाते हैं महिलाओं के मुद्दे - रंजना कुमारी

मैं दिल्ली से उत्तर प्रदेश के अपने एक गांव में वोट डालने गई थी। वहां अब भी बहुत ज्यादा विकास नहीं हुआ है। मगर एक अच्छी बात जरूर दिखी कि घरों से महिलाएं वोट डालने के लिए अकेली निकल रही थीं। पहले ज्यादातर वे परिवार की भीड़ का हिस्सा बनकर पोलिंग बूथों तक पहुंचती थीं, लेकिन इस बार वे अपने बच्चे का हाथ थामकर मतदान की कतारों में खड़ी थीं।...

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समाजवाद की संभावना थे सुनील- अरुण कुमार त्रिपाठी

सुनील भाई से जब भी मिला, जहां भी मिला उन्हें एक जैसा ही पाया. वे रंग बदलनेवाले और रंग दिखानेवाले समाजवादी नहीं थे. उन्हें देख कर और याद कर मुक्तिबोध की बौद्धिकों पर व्यंग्य में की कही गयी कविता की पंक्तियां पलट कर कहने का मन करता है.  मुक्तिबोध ने आज के बुद्धिजीवियों के लिए कहा था- ‘उदरंभरि अनात्म बन गये, भूतों की शादी में कनात से तन गये, लिया बहुत...

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औरत के हक में नहीं- तस्लीमा नसरीन

लोकतंत्र बहुत ही सभ्य व्यवस्था है। लेकिन इस तंत्र में असभ्य और मूर्खों का भी ऐसा अबाध प्रवेश है कि कई बार लगता है, लोकतंत्र की स्थापना पर ही हमें रुक नहीं जाना चाहिए, बल्कि उसे और बेहतर करने के बारे में भी सोचना चाहिए। बचपन में मैंने दुर्गम गांवों के कुछ मतदाताओं को नाव चिह्न पर वोट देने जाते देखा था। वे सोचते थे कि नाव चिह्न पर वोट...

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कालाहांडी में बार-बार चढ़ती काठ की हांडी- सलमान रावी

शहर कैसा होता है? इन्हें नहीं पता। बस कैसी होती है? ये नहीं जानतीं। "शायद शहर में मेम रहती है। मुझे पता नहीं। शहर बहुत बड़ा होगा। वहां बिजली होगी। जगमग-जगमग करता होगा। वहां मेले लगते होंगे। शहर की लड़कियां बहुत ख़ूबसूरत होंगी लेकिन मैंने उन्हें कभी नहीं देखा।" ये कल्पना है, कालाहांडी के पेर्गुनी पाड़ा गाँव में रहने वाली ललिता की, जिसने कभी शहर नहीं देखा है। ललिता के सपनों...

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चुनावी एजेंडे से उन्हें क्यों बाहर रखा जाता है- सुभाषिनी अली

मुझे बैरकपुर के चुनाव क्षेत्र में रहते अब 20 दिन हो चुके हैं। श्यामनगर, जहां मैं रह रही हूं, वह गांव और छोटे शहर का एक मिला-जुला इलाका है। श्यामनगर का स्टेशन करीब है और यहां से कोलकाता तक जाने वाली लोकल ट्रेनों ने, जो कई दशकों से चल रही है, शहर और शहर से मिलने वाले रोजगार से यहां के लोगों को जोड़कर इलाके को नीम-ग्रामीण बना दिया है। मेरे घर...

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