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कानून‌ और इन्साफ | न्याय:कितना दूर-कितना पास
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निगरानी और निजता के सवालों का जवाब तलाशती कॉमन कॉज की रिपोर्ट स्टेट्स ऑफ पुलिसिंग इन इंडिया रिपोर्ट (SPIR) 2023: निगरानी और निजता का सवाल, अंग्रेजी के लिए यहाँ क्लिक कीजिए और हिंदी के लिए यहाँ क्लिक कीजिए

 

रिपोर्ट की मुख्य बातें-


“स्टेट्स ऑफ पुलिसिंग इन इंडिया रिपोर्ट, (SPIR) 2023: निगरानी और निजता का सवाल” नामक यह रिपोर्ट भारत में डिजिटल निगरानी के बारे में लोगों के विचारों व अनुभवों का अध्ययन करती है। भारत में इंटरनेट का इस्तेमाल करने वालों की आबादी अच्छी–खासी है। सरकार सहित निजी क्षेत्र में भी डिजिटल माध्यम को बढ़ावा दिया जा रहा है। ऐसे में निजता के मसले पर आमजन का ध्यान आकर्षित करना ज़रूरी हो जाता है।
हाल में हुए कुछ घटनाक्रमों के कारण निजता का मसला सुर्खियाँ बटोर रहा है। ‘पुट्टस्वामी बनाम भारत संघ मामले’ में दिया गया सर्वोच्च अदालत का निर्णय और केंद्र सरकार की ओर से लाया गया ‘डाटा संरक्षण बिल’ निजता के मसले पर अपनाए गए सकारात्मक नज़रिए को दर्शाता है। वहीं दूसरी ओर सरकार के द्वारा पेगासस के अवैध इस्तेमाल और आपराधिक प्रक्रिया (पहचान) अधिनियम, 2022 के तहत पुलिस के द्वारा हिरासत में लिए गए, संदिग्ध लोगों के बायोमेट्रिक विवरण इकट्ठा करने का अधिकार, चिंताजनक स्थिति को दर्शाता है।
कॉमन कॉज़ ने सीएसडीएस के लोकनीति कार्यक्रम के सहयोग से ‘डिजिटल निगरानी’ पर अध्ययन किया है। इस अध्ययन के लिए सर्वेक्षण किया गया; जिसमें 12 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के 9,779 लोगों को शामिल किया है। साथ ही इस रिपोर्ट में, निगरानी के मसले पर काम करने वाले विशेषज्ञों के साथ की गई विषय केंद्रित सामूहिक परिचर्चा, कार्यरत पुलिस अधिकारियों का साक्षात्कार और निगरानी से जुड़ी मीडिया ख़बरों का एक विश्लेषण भी शामिल किया है।


निगरानी के मसले पर जनता का रुख क्या है? 
अध्ययन के नतीजे इस ओर इशारा करते हैं कि जनता, सरकार की ओर से की जाने वाली कुछ विशिष्ट प्रकार की निगरानी का समर्थन करती है। साथ ही यह भी पता चला है कि पुट्टस्वामी केस और पेगासस जैसे गंभीर मुद्दों पर जनता के बीच समुचित जानकारी का अभाव देखा गया। SPIR, 2018 की तरह ही इस बार के अध्ययन में भी पाया कि जनता, हुकूमत की ओर से की जा रही निगरानी और ‘बोलने की आजादी’ पर किए जा रहे पुलिसिया दमन का मोटे तौर पर समर्थन करती है। पर समर्थन का स्तर एक जैसा नहीं था। समर्थन, समाज के सामाजिक–आर्थिक स्तर पर टिका हुआ था। समाज के निचले पायदान की ओर जाने पर समर्थन में कमी देखी गई। वहीं गरीबों, दलितों, आदिवासियों और मुसलमानों में पुलिस के प्रति भरोसे की कमी देखी गई।

कुल मिलाकर SPIR 2023, डिजिटल निगरानी के बारे में जनता की नब्ज टटोलने का काम करती है। रिपोर्ट डिजिटल निगरानी के बारे में जनता के अनुभवों को दर्ज करती है; विचारों को समझने की कोशिश करती है। साथ ही, इस रिपोर्ट की कोशिश है कि निगरानी के मुद्दे पर जनता के बीच में जागरूकता का स्तर ऊंचा उठे। और सरकारी या गैर–सरकारी निगरानी के बाबत विश्वास और समर्थन में मौजूद असमानता को संबोधित करना है। 


इस रिपोर्ट के मुख्य नतीजे नीचे दर्ज किए गए हैं–


अधिकारिक आंकड़ों का रुझान 
परमवीर सिंह मामले में सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस स्टेशनों में सीसीटीवी लगाना अनिवार्य कर दिया था। पुलिस और निगरानी एजेंसियों के पास आधिकारिक डेटा की सीमित उपलब्धता है। उसके बावजूद हमने भारत में निगरानी के व्यापक रुझानों को समझने के लिए मौजूदा सरकारी आंकड़ों का उपयोग करते हुए एक विश्लेषण किया है।
●    जितने सीसीटीवी कैमरों तक पुलिस की पहुंच है (इसमें निजी हैसियत से लगाए गए कैमरे, किसी संस्था या सोसाइटी की तरफ से लगाए गए कैमरे शामिल हैं) शहर में उपलब्ध कुल सीसीटीवी कैमरों के मुकाबले कम है। यानी शहर में कैमरे ज्यादा हैं पर पुलिस की उन तक पहुंच नहीं है।
●    वर्ष 2016 से 2020 के बीच हो रही वाहन चोरी, मर्डर और संज्ञेय अपराध की दरों में बढ़ोत्तरी और पुलिस के पास उपलब्ध कैमरों की संख्या के बीच कोई सार्थक सांख्यिकीय सम्बन्ध नहीं है।
●    ऐसे राज्य जहाँ साइबर अपराध की घटनाएं अधिक संख्या में दर्ज होती हैं, उन राज्यों की ढांचागत क्षमता साइबर अपराध के इन मामलों से निपटने के लिए नाकाफ़ी है।
●    देश भर में साइबर अपराध के लिए चार्जशीट और सज़ा की दर, कुल संज्ञेय आईपीसी (भारतीय दंड संहिता) और एसएलएल (स्पेशल एंड लोकल लॉ) के तहत दर्ज हुए कुल अपराधों की दर के मुकाबले कम है। उदाहरण के लिए, असम में वर्ष 2021 के दौरान साइबर क्राइम के लिए 6096 व्यक्तियों को गिरफ्तार किया गया था। लेकिन इनमें से सिर्फ 16 प्रतिशत के खिलाफ चार्जशीट दायर की जा सकी और आरोप सिद्धि की दर केवल 2.2 फीसद रही।

निगरानी और निजता के अधिकार पर विशेषज्ञों का मत
निगरानी का मुद्दा आमजन के विमर्श का हिस्सा नहीं बन पाता है। चौकसी के ऊपर गिने–चुने विशेषज्ञों की टोली ही बात कर पाती है।जिसके कारण इन मुद्दों पर जनता के बीच जागरूकता की कमी है; निगरानी के मसले पर फैली हुई अज्ञानता को तोड़ने के लिए, आमजन की बातचीत का हिस्सा बनाने के लिए इस रपट ने विशेषज्ञों के बयानों को दर्ज किया है। विशेषज्ञों के बयानों को विषय केंद्रित सामूहिक परिचर्चा और लंबे साक्षात्कारों के माध्यम से दर्ज किया है। 


●    विषय पर केंद्रित परिचर्चा में भाग लेने वाले अधिकतर विशेषज्ञ इस बात से सहमत थे कि निगरानी कई क्षेत्रों यथा– सरकारी, निजी क्षेत्र के उद्यमों और व्यक्ति विशेष के द्वारा निजी हैसियत पर की जा रही है। हुकूमत की ओर से की जा रही लक्षित निगरानी चिंता का सबसे बड़ा कारण है। कुछ प्रतिभागियों का मानना है कि निजी कंपनियों द्वारा की जा रही निगरानी भी विरोध को दबाने, चुनावी प्रक्रिया को प्रभावित करने सरीखे कुटिल उद्देश्यों की पूर्ती के लिए किया जाता है। 
●    वहीं परिचर्चा के प्रतिभागियों में जन निगरानी की तकनीकों के बारे में आम राय नहीं थी। कईयों का मानना था कि सार्वजनिक सुरक्षा के नज़रिए से सीसीटीवी का प्रयोग किया जाना उचित है। तो कई इस बाबत सवालिया निशान खड़ा कर रहे थे। हालांकि, एक चिंता पर सबकी राय एक जैसी थी–  निगरानी तकनीकों का उचित ढंग से निरक्षण किया जाए और साथ ही उसका उत्तरदायित्व भी सुनिश्चित किया जाए।
●    विषय पर हुई परिचर्चा में शामिल सभी लोग इस बात पर मुख्यतः सहमत थे कि निगरानी तकनीकों के प्रति जनता का समर्थन निजता के अधिकार और उससे पैदा होने वाले खतरों से बेखबर होने के कारण उपजा था। साथ ही यह महसूस किया गया कि जनता, निगरानी को राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए जरूरी मानती है। चर्चा में कुछ प्रतिभागियों ने गरीब व अमीर नागरिकों की अलग-अलग राय को भी रेखांकित किया। गरीब वर्ग निगरानी को ज्यादा पसंद नहीं करता है।
●    विषय पर केंद्रित सामूहिक परिचर्चा में शिरकत करने आए कुछ प्रतिभागियों और कुछ पुलिस अधिकारियों का कहना था कि भारत में उचित ढंग से निगरानी करने के लिए पुलिस विभाग के पास ढांचागत क्षमता की कमी है। और ठीक से निगरानी करने के लिए कानूनी तंत्र का भी अभाव है। (इसी कारण से पुलिस जमीनी स्तर पर निगरानी तकनीकों का प्रभावी ढंग से इस्तेमाल नहीं कर पाती है।) 
●    विषय पर केंद्रित सामूहिक परिचर्चा में भाग लेने वाले मुख्यतः इस बात पर सहमत थे कि निगरानी तकनीकों में आई अशुद्धियां या जानबूझकर की गई गलतियां एल्गोरिदम को बदल सकती हैं। जिसके कारण आपराधिक न्याय प्रणाली अपने मूल उद्देश्य से भटक सकती है।

 

सीसीटीवी के बारे में फैली धारणाएं और उसकी मौजूदगी
डिजिटल रूप से जनसमूह की निगरानी करने के लिए कई तकनीकों का इस्तेमाल किया जाता है। सीसीटीवी, उनमें से एक तकनीक है। सीसीटीवी को जन समूह की बड़े पैमाने पर डिजिटल निगरानी के लिए एक अहानिकर साधन के तौर पर देखा जाता है। सीसीटीवी के समर्थक ये दावा करते है कि सीसीटीवी से अपराध की घटनाओं में कमी आती है और जन सुरक्षा सुदृढ़ होती है। पर आंकड़े इस बात की गवाही नहीं देते हैं। बावजूद इसके, सर्वे के दौरान हमने पाया कि एक बड़ा तबका सीसीटीवी के इस्तेमाल को जारी रखने की वकालत कर रहा था। हालांकि, जैसे–जैसे नागरिकों के शिक्षा और सामाजिक–आर्थिक स्तर में गिरावट आ रही थी, सीसीटीवी का समर्थन करने वालों में भी कमी आ रही थी।
●    दो में से एक आदमी (51%) का कहना था कि हमारे घर या कॉलोनी में सीसीटीवी लगा हुआ है। हालांकि, मलिन व गरीब बस्तियों की तुलना में उच्च आय वाले घरों के पास सीसीटीवी लगे होने की संभावना तीन गुना अधिक है। वहीं अगर सरकार की ओर से सीसीटीवी कैमरे लगाने की बात आती है तब वो मलिन या गरीबों की बस्तियों पर मेहरबान हो जाती है; अमीरों की तुलना में यहां सीसीटीवी लगाने की संभावना तीन गुना अधिक रहती है।

 

 

नोट: सभी आंकड़े प्रतिशत में दिए गए हैं। उन्हीं आंकड़ों को शामिल किया है जिसमें उत्तरदाता सीसीटीवी कैमरा होने की हामी भरता है। सर्वे में भाग लेने वाले कुछ हिस्सेदारों ने सवाल का जवाब नहीं दिया।

पूछा गया प्रश्न: क्या सीसीटीवी आपके द्वारा लगाये गए या किसी अन्य प्राधिकरण द्वारा?


●    गरीब जनता, सीसीटीवी कैमरों का कम समर्थन करती है; चाहे वो किसी भी स्थान पर हो–घर के अंदर, घर के बाहर या काम करने की जगह पर।
●    चार में से एक आदमी का कहना था कि सीसीटीवी के कारण बड़े पैमाने पर की जाने वाली गैर–कानूनी निगरानी की संभावना बढ़ जाती है। वहीं दूसरी ओर चार में से तीन आदमियों का मानना था कि सीसीटीवी अपराध की घटनाओं पर लगाम कसता है, घटनाओं की निगरानी रखता है।


 
नोट:– सभी आंकड़े प्रतिशत में दिए गए हैं।


पूछा गया प्रश्न: कृपया ये बताने का कष्ट करें कि आप इस कथन से सहमत हैं या असहमत– “सार्वजनिक स्थलों पर लगे सीसीटीवी कैमरों के कारण गैर–कानूनी रूप से ‘बड़े पैमाने पर निगरानी’ की संभावना बढ़ जाती है?


●    उच्च शिक्षा प्राप्त किए हुए तबके का मानना था कि सीसीटीवी कैमरे– अपराध में कटौती, अपराधों की जाँच पड़ताल और जन सुरक्षा को मजबूत बनाने में मदद करते हैं। साथ ही इस जमात को सीसीटीवी के माध्यम से गैर–कानूनी रूप से बड़े पैमाने पर निगरानी की संभावना भी कम दिखी।
●    पांच में से दो (40%) व्यक्तियों का मानना था कि सीसीटीवी फुटेज के साथ छेड़छाड़ या हेरफेर की जा सकती है।
●    पैंतालीस फ़ीसदी लोगों का मानना था कि पुलिस चौकियों में लगे सीसीटीवी कैमरों के माध्यम से कैदियों के मानवाधिकारों की सुरक्षा की जा सकती है। लगभग आधे उत्तर दाताओं का मानना था कि पुलिस की ओर से की जाने वाली पूछताछ सीसीटीवी कैमरे में रिकॉर्ड की जाए।

 

 नोट:– सभी आंकड़े प्रतिशत में दिए गए हैं। 
पूछा गया प्रश्न: क्या आपको लगता है कि सीसीटीवी कैमरों की मार्फत पुलिस हिरासत में लिए गए व्यक्तियों के साथ किए जा रहे दुर्व्यवहार, यातना या मानवाधिकारों के उल्लंघन में कमी आ सकती है?  
कितनी कमी– काफी हद तक, थोड़ी बहुत, बहुत कम या बिलकुल नहीं?


सरकार और पुलिस की निगरानी
SPIR 2018 की तरह ही इस बार के अध्ययन में भी पाया कि जनता पुलिस के प्रदर्शन से संतुष्ट है। जनता को निगरानी के लिए इस्तेमाल की जा रही अनेक तकनीकों जैसे ड्रोन, फेशियल रिकॉग्निशन इत्यादि से भी ज्यादा दिक्कत नहीं है; हालांकि, हल्का–सा आलोचनात्मक रुख भी दिखाया है।
●    सर्वे में भाग लेने वाले आधे से अधिक लोगों का मानना था कि विचाराधीन बंदियों या संदिग्ध व्यक्तियों के बायोमेट्रिक डैटा जमा करना सही है। वहीं आदिवासी और मुस्लिम लोग इसका विरोध कर रहे थे।
●    करीब दो में से एक शख्स का मानना था कि सरकार, सैन्य व पुलिस बल की ओर से किए जा रहे ड्रोन का इस्तेमाल सही है। हालांकि, गरीबों और किसानों ने सरकार के द्वारा किए जा रहे ड्रोन के इस्तेमाल का विरोध किया है।
●    दो में से एक आदमी फेशियल रिकॉग्निशन तकनीक के सरकार व पुलिस के द्वारा किए जा रहे इस्तेमाल का समर्थन कर रहे हैं। इस समर्थन की तुलना निजी क्षेत्र के साथ करें, तो निजी क्षेत्र से चार गुना अधिक समर्थन सरकार व पुलिस की ओर से किए जा रहे इस्तेमाल पर मिल रहा है।
●    तीन में से लगभग दो उत्तरदाताओं का मानना है कि राजनीतिक दल चुनावी सर्वेक्षण के लिए नागरिकों की निगरानी करवाते हैं ।
 


 

नोट: सभी आंकड़े प्रतिशत में दिए गए हैं।


आपको क्या लगता है कि ये चीजें हमारे देश में किस हद तक होती हैं – हमेशा, कभी-कभी, शायद ही कभी या कभी नहीं?
a. राजनीतिक दल चुनाव जीतने के लिए निगरानी और जासूसी करने वाली तकनीक का इस्तेमाल करते हैं
b. आम लोगों की चुनावी पसंद को प्रभावित करने के लिए, निजी कंपनियां या NGO उनका डेटा इकठ्ठा करते हैं 
c. इंटरनेट पर झूठी खबरें फैलाने के लिए, निजी कंपनियां, NGO और राजनीतिक दल साथ में मिलकर काम करते हैं 
d. देश की चुनी हुई सरकारें गैर-कानूनी रूप से अपने ही नागरिकों की जासूसी करती हैं            
●    चवालिस प्रतिशत लोगों का मानना है कि पुलिस को बिना वारंट के लोगों के फोन चेक करने की आज़ादी नहीं होनी चाहिए। पांच में से दो लोगों का मानना है कि किसी के भी लैपटॉप या फोन को ट्रैक करने से पहले पुलिस को हमेशा सर्च वारंट हासिल करना चाहिए।


 
नोट: सभी आंकड़े प्रतिशत में दिए गए हैं। 


पूछा गया प्रश्न:  पुलिस को बिना वारंट के, कभी भी आपके फोन की चेकिंग करने की कितनी आज़ादी होनी चाहिए - पूरी, कुछ मामलों में, कोई आज़ादी नहीं या बिल्कुल भी आज़ादी नहीं होनी चाहिए?


●    निजी कंपनियों द्वारा अवैध निगरानी के खिलाफ कार्रवाई की अपेक्षा जनता को एक ऐसे स्वतंत्र मंच की अधिक आवश्यकता महसूस होती है जो पुलिस जैसी सरकारी एजेंसियों द्वारा की गयी अवैध निगरानी से निपटने का काम करे।
●    केवल सोलह प्रतिशत लोगों का मानना है कि निगरानी तकनीकों जैसे सीसीटीवी, ड्रोन और एफआरटी का उपयोग करने के लिए पुलिस पर्याप्त रूप से प्रशिक्षित है।
निजता का अधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
निगरानी के विषय में निपुण और विशेषज्ञों के साथ हुई विषय पर केन्द्रित सामूहिक परिचर्चा से निकले नतीजे जनता द्वारा अभिव्यक्त राय से उल्लेखनीय रूप से भिन्न हैं। सर्वेक्षण के आंकड़ों के मुताबिक बहुत से लोग अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के किसी भी रूप जैसे असहमति, विरोध आदि पर रोक लगाने के लिए सरकार द्वारा की गई निगरानी का समर्थन करते हैं। इसके अलावा, जहाँ एक तरफ लोग ऑनलाइन प्लेटफार्म पर अपनी राय व्यक्त करने को लेकर डर जताते हैं, वहीं दूसरी तरफ अवैध स्पाईवेयर जैसे पेगासस का उपयोग करके ऑनलाइन और ऑफलाइन दोनों प्रकार की सरकार द्वारा अवैध निगरानी की गतिविधियों का समर्थन किया है। हालांकि, ध्यान देने वाली बात यह है कि पेगासस स्कैंडल जैसे मौजूदा निगरानी मुद्दों या पुट्टास्वामी फैसले के बारे में लोगों की जागरूकता का स्तर बहुत ही कम है। आधे से अधिक लोग विरोध प्रदर्शनों को नियंत्रित करने के लिए सीसीटीवी कैमरों के इस्तेमाल को पुरजोर तरीके से सही ठहराते हैं। राजनीतिक आंदोलनों या विरोध प्रदर्शनों को रोकने के लिए सीसीटीवी के उपयोग का समर्थन करने वालों में छोटे शहरों और गरीब पृष्ठभूमि के लोगों की संख्या कम है। 
●    पांच में से एक व्यक्ति का मानना है कि सरकार का आम लोगों की सोशल मीडिया पोस्ट पर नजर रखना सही है।  
●    उत्तरदाताओं के बड़े वर्ग को लगता है कि सरकारी निगरानी द्वारा विरोध और राजनीतिक आंदोलनों को दबाने के लिए सीसीटीवी (52%), ड्रोन (30%), FRT (25%), आदि का इस्तेमाल बहुत हद तक उचित है। विरोध प्रदर्शनों के दौरान सरकारी निगरानी का समर्थन पंजाब के लोगों ने सबसे कम किया। जबकि गुजरात के लोगों ने निगरानी का समर्थन सबसे अधिक है।   
●    तीन में से लगभग दो उत्तरदाता कानूनी कार्रवाई के डर से ऑनलाइन पोस्ट में अपनी राजनीतिक या सामाजिक राय देने से डरते हैं।
 

नोट: सभी आंकड़े प्रतिशत में हैं।


पूछा गया प्रश्न: आपको इस बात का कितना डर है कि अगर आप किसी राजनीतिक या सामाजिक मुद्दे पर अपनी राय सोशल मीडिया पर पोस्ट करते हैं और यदि यह कुछ समूहों की भावनाओं को ठेस पहुंचाती है, तो आप पर कानूनी कार्रवाई हो सकती है - बहुत डर, थोड़ा बहुत डर, बहुत कम या बिल्कुल भी डर नहीं?

 
●    तीन में से दो लोगों ने पेगासस स्पाइवेयर मुद्दे के बारे में सुना ही नहीं है। एक चौथाई से अधिक उत्तरदाताओं को लगता है कि पेगासस का उपयोग करने वाले सांसदों/विधायकों और अन्य राजनेताओं की निगरानी पूरी तरह से उचित है।


 

नोट: सभी आंकड़े प्रतिशत में हैं।


पूछा गया प्रश्न: क्या आपने पेगासस सॉफ्टवेयर के बारे में सुना है जिसका इस्तेमाल भारत सहित अन्य देशों की सरकारों द्वारा राजनेताओं, पत्रकारों और न्यायाधीशों जैसे कुछ लोगों के फोन टैप करने, कॉल सुनने और मैसेज पढ़ने के लिए किया गया था? 1. हां 2. नहीं 98. याद नहीं


●    सर्वेक्षण में लगभग तीन में से एक उत्तरदाता ने राजनीतिक विरोध को रोकने के लिए सरकार के ड्रोन के इस्तेमाल का पुरजोर समर्थन किया है। 
●    साठ प्रतिशत से अधिक जनता प्रदर्शनकारियों की पहचान करने के लिए एफआरटी के इस्तेमाल का समर्थन करती है, जबकि पांच में से दो का कहना है कि आम नागरिकों की पहचान के लिए ड्रोन का इस्तेमाल किया जाना चाहिए।

 


नोट: "बहुत हद तक" और "कुछ हद तक" श्रेणी को 'समर्थन' बनाने के लिए एक कर दिया गया था और 'बहुत कम और बिल्कुल नहीं' को बेहतर अन्तर दिखाने के लिए 'विरुद्ध' बनाने के लिए एक साथ मिला दिया गया था। सभी आंकड़े प्रतिशत में हैं। 


पूछा गया प्रश्न: टेबल के बाएं स्तंभ में उल्लिखित परिस्थितियों की सूची में पुलिस या सरकार द्वारा फेशियल रिकॉग्निशन टेक्नोलॉजी (FRT) का उपयोग किस हद तक उचित है - बहुत हद तक, कुछ हद तक, बहुत कम या बिल्कुल नहीं? 


●    छ: उत्तरदाताओं में से केवल एक (16%) ने निजता के अधिकार पर सर्वोच्च न्यायालय (पुट्टास्वामी) के फैसले के बारे में सुना है। फैसले के बारे में सुनने वालों की संख्या में मुख्य रूप से उच्च वर्ग, कॉलेज और उच्च शिक्षा स्तर के लोगों की अधिकता है।
●    दो में से लगभग एक व्यक्ति निजता के अधिकार पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले से पूरी तरह सहमत है।


निजी संस्थानों द्वारा निगरानी
जनता आम तौर पर सरकार के निगरानी तकनीकों के उपयोग के समर्थन में है। लेकिन व्यक्तिगत डाटा की सुरक्षा और निजी संस्थाओं द्वारा उनके दुरुपयोग को लेकर लोगों के बीच गंभीर चिंता बनी हुई है। यह तब और भी खुले तौर पर साफ़ हो जाती है जब सरकारी दस्तावेजों जैसे आधार या पैन कार्ड की बात आती है। आम लोग इन दस्तावेज़ों के विवरणों को निजी कंपनियों के साथ साझा करने से डरते हैं। सर्वेक्षण इस ओर इशारा करता है कि निजी कंपनियों ने आम लोगों की ऑनलाइन गतिविधियों पर नज़र बनायीं हुई है। लोगों को उनकी प्रोफाइल और अतीत में की गयी उनकी ऑनलाइन गतिविधियों के आधार पर उन्हें विज्ञापन दिखाए जाते हैं।
●    तीन में से लगभग दो उत्तरदाता इस बात को लेकर चिंतित हैं कि निजी संस्थाओं द्वारा एकत्र किए गए उनके डेटा का दुरुपयोग किया जा सकता है।
●    दो में से लगभग एक व्यक्ति इस बात से पूरी तरह सहमत है कि अक्सर उसकी ऑनलाइन सर्च के आधार पर उन्हें ऑनलाइन विज्ञापन दिखाए जाते हैं।


 
नोट: सभी आंकड़े प्रतिशत में हैं।


पूछा गया प्रश्न: (i) आपकी ऑनलाइन सर्च के आधार पर आपको कितनी बार संदेश या विज्ञापन प्राप्त होते हैं- बार-बार, कभी-कभी या कभी नहीं? 


●    पांच में से एक व्यक्ति निजी एजेंसियों के साथ अपने आधार का विवरण साझा करने में बिल्कुल भी सहज नहीं है। 
●    चालीस प्रतिशत लोग इस बात को लेकर बहुत चिंतित हैं कि ऑनलाइन जानकारी देने से उसका दुरुपयोग किया जा सकता है। 
●    चवालीस प्रतिशत लोग इस बात को लेकर अत्यंत चिंतित हैं कि अज्ञात व्यक्ति/कंपनियाँ उनके बैंक खतों पर नज़र रख रहे हैं। 
●    चार में से लगभग तीन लोग चिंतित हैं कि उनका व्यक्तिगत डेटा जैसे आधार या पैन नंबर ऑनलाइन लीक हो सकते हैं।

 


 
नोट: सभी आंकड़े प्रतिशत में हैं।
पूछा गया प्रश्न: इन बातों को लेकर आप कितना चिंतित महसूस करते हैं कि यह आपके साथ हो सकता है - बहुत चिंतित, कुछ हद तक चिंतित, बहुत कम या बिल्कुल भी नहीं? आपका व्यक्तिगत डेटा जैसे आधार नंबर, पैन नंबर आदि ऑनलाइन लीक हो सकता है।


हैकिंग और साइबर अपराध
आम जनता के लिए व्यक्तिगत डेटा, विशेष रूप से वित्तीय और अन्य संवेदनशील जानकारी की सुरक्षा एक प्रमुख चिंता का विषय है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़े इसका समर्थन करते हैं। एनसीआरबी की रिपोर्ट के अनुसार वैश्विक महामारी की शुरुआत के बाद साइबर अपराधों की रिपोर्टों में वृद्धि हुई है। सर्वेक्षण के निष्कर्ष भी इस चिंता को दर्शाते हैं। इसके अलावा सर्वेक्षण से पता चलता है कि जाति, वर्ग और आयु के आधार पर डिजिटल वित्तीय प्लेटफार्मों के उपयोग में काफी भिन्नता है।
●    पांच में से दो लोग (40%) इस बात को लेकर चिंतित हैं कि हैकर्स चोरी से उनके फोन की जानकारी तक पहुँच सकते हैं।
●    चार में से तीन लोग इस बात को लेकर चिंतिन हैं कि अज्ञात व्यक्ति/कंपनी उनके ईमेल खातों तक पहुँच सकते हैं।
●    सर्वे में पाया गया कि तीन में से लगभग एक व्यक्ति ऐसा है जो किसी भी प्रकार के डिजिटल बैंकिंग जैसे यूपीआई, बैंकिंग वॉलेट, डेबिट या क्रेडिट कार्ड या नेट बैंकिंग के माध्यम से ऑनलाइन लेनदेन नहीं करता है। अधिक उम्र के उत्तरदाता डिजिटल भुगतान वॉलेट जैसे ऐप्स के साथ कम सहज पाए गए हैं।
●    अनुसूचित जाति के उत्तरदाता डिजिटल बैंकिंग विधियों का उपयोग करते हुए कम पाए गए, जबकि उच्च जाति के उत्तरदाता सबसे अधिक।
●    बारह प्रतिशत उत्तरदाताओं ने बताया कि वे ऑनलाइन वित्तीय धोखाधड़ी के शिकार हुए हैं।

 


 
नोट: सभी आंकड़े प्रतिशत में हैं। 
पूछा गया प्रश्न: क्या आपने या आपके किसी करीबी ने, कभी ऑनलाइन धोखाधड़ी के कारण अपने बैंक खाते से पैसे खोये हैं?


निगरानी पर मीडिया सामग्री का वस्तु-विश्लेषण
निगरानी संबंधित मुद्दों की मीडिया कवरेज को गहराई से समझने के लिए रिसर्च टीम ने 1 जुलाई, 2021 से 30 जून, 2022 तक की एक वर्ष की अवधि के समाचारों का विश्लेषण किया। छह मीडिया संस्थानों (तीन हिंदी और तीन अंग्रेजी) के कुल 1,113 समाचारों को कोड किया गया और व्यापक रुझानों की पहचान करने के लिए उनका विश्लेषण किया गया। इनमें ख़बरों के प्रकार, उनका झुकाव, कहानियों का फ्रेम इत्यादि शामिल हैं। 
●    निगरानी पर आधारित चुनी गयीं ख़बरों में हमने पाया कि चार में से तीन में प्राथमिक स्रोत के लिए मीडिया संस्थानों ने सरकारी एजेंसियों पर भरोसा किया। 
●    निगरानी पर चार में से एक खबर में इसका समर्थन पाया गया।
●    टाइम्स ऑफ़ इंडिया और दैनिक जागरण की निगरानी पर अधिकतर ख़बरों में सरकार का समर्थन पाया गया, और द वायर की सबसे ज़्यादा खबरों में सरकार के प्रति आलोचना थी।
●    तीन में से लगभग दो ख़बरें निगरानी के जन-सुरक्षा और कानून व्यवस्था के लिए उपयोग के बारे हैं। सैंपल के लिए चुनी गयीं ख़बरों में से केवल एक चौथाई ख़बरें ही मूलरूप से मानव अधिकारों से सम्बन्धित विषय पर केंद्रित हैं।
●    सीसीटीवी और ड्रोन पर आधारित ख़बरों में इन तकनीकों की वैधता या निजता के अधिकार पर सबसे कम बहस देखने को मिलती हैं।
●    कुल सैंपल में से 14 प्रतिशत से भी कम ख़बरों ने निजता के अधिकार या निगरानी की वैधता का उल्लेख किया है।




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