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न्यूज क्लिपिंग्स् | नजर, निर्लज्ज नजारा और अनदेखी : एम.जे. अकबर

नजर, निर्लज्ज नजारा और अनदेखी : एम.जे. अकबर

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published Published on Oct 19, 2011   modified Modified on Oct 19, 2011
गरीबी की तुलना में समृद्धि की पहचान बेहद आसान है। दौलत या तो नजर आती है या उसका निर्लज्ज नजारा होता है, जबकि निर्धनता अनदेखी ही बनी रहती है।

सबसे बदतर किस्म की गरीबी देश और दुनिया के उन हिस्सों में अदृश्य रहती है, जहां यह सरकार के उद्गम स्थल से बाहर होती है और व्यावसायिक प्रतिष्ठान, नौकरशाही या मीडिया सरीखे आधुनिक जीवन के इंजनों को ईंधन देने का काम करने वाले व्यक्तियों और संस्थानों की दिलचस्पियों से परे होती है।

उदारवादी विचारधारा के लोग भुखमरी के नजारों से गुजरते हुए कभी-कभार नैतिक टीस महसूस करते हैं, लेकिन गरीबी न तो उदारवादियों की ‘बैलेंस शीट’ में नजर आती है, न रूढ़िवादियों की। उदारवादी अपराधबोध से बचने का तरीका है मुंह फेर लेना। हम भूखे लोगों की तरफ से आंखें मूंद लेते हैं। हम सारी जिम्मेदारी सरकार पर छोड़ देते हैं।

सरकार निजी हित और औपचारिक निर्णय का विचित्र मेल है। हम अपने अनुभव से जानते हैं कि सरकार द्वारा उपलब्ध कराई जाने वाली सबसे बढ़िया सेवा है जुबानी सेवा। जुबानी सेवा का उपहास मत उड़ाइए। यह एक विज्ञान के रूप में विकसित हुई है।

आंकड़े इस विज्ञान की बुनियादी सामग्री हैं। वे तथ्यों की वैधता से युक्त प्रतीत होते हैं, मानो तथ्य, सत्य के समानार्थी हों। लेकिन यह एक बढ़िया बहाना है, किसी निर्णय को मनोवैज्ञानिक तौर पर टालने के लिए एक शानदार साधन, क्योंकि किसी को भी समाधान के लिए कोई जल्दी नहीं है।

आंकड़े सरकार के कुछ काले कोनों में शोर करते हुए घूमते हैं, जिससे यह भ्रम होता है कि कोई वाकई किसी चीज को लेकर कुछ कर रहा है। यह अच्छा विचार होगा कि भारत से मोंटेक सिंह अहलुवालिया का परिचय कराया जाए। जितनी ज्यादा जान-पहचान होगी, उन्हें और भारत, दोनों को फायदा होगा, क्योंकि जब तक डॉ. मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री रहेंगे, अहलुवालिया योजना आयोग के प्रभावी प्रमुख बने रहेंगे।

इस कहानी का दिलचस्प हिस्सा यह है कि फिलहाल 32 रुपए रोजाना की गरीबी रेखा के जनक के तौर पर ज्यादा प्रसिद्ध हो चुके अहलुवालिया गरीबी को मापने के लिए वैसे मापदंडों को लागू नहीं करते, जिनका अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देश पालन करते हैं।

हम तो तलहटी की पद्धति को लेते हैं: जीवन के बुनियादी बचाव के लिए कुछ गिनीचुनी अनिवार्य जरूरतों पर होने वाला खर्च, आपको जिंदा रखने के लिए पर्याप्त कैलोरियों की गणना। अमीर देश औसत दौलत के प्रतिशत के तौर पर गरीबी की गणना करते हैं।

यदि कोई उस औसत से कुछ तयशुदा प्रतिशत नीचे पहुंच जाता या जाती है, तो उसे गरीब समझा जाता है, यानी उसे मदद की जरूरत है। यही कारण है कि उन देशों के निर्धन कभी भी भुखमरी के जाल में नहीं गिरते या महज गुजारे लायक अस्तित्व में ही नहीं घिसटते।

तथ्यात्मक रूप से किसी अमीर देश के पास अपने आर्थिक अधिशेष (सरप्लस) के चलते गरीबी रेखा को ऊंचा कर देने की क्षमता होती है। एक दूसरे दृष्टिकोण के बारे में क्या कहते हैं? अमीर देश वाकई अमीर हैं, क्योंकि उन्होंने गरीबी की अपनी परिभाषा बदली है। कौन सी चीज किसी देश को अमीर बनाती है?

समाज के ऊपरी ओर एक छोटे से समुदाय द्वारा संपदा का निर्माण और विनियोजन, जो फिर अपनी ताकत का भरसक इस्तेमाल इस दौलत के नीचे की ओर फैलाव को रोकने के लिए करता है? या फिर ऐसी समृद्धि का निर्माण, जिसे ज्यादा उदार और इसलिए आम भी कहा जा सकता है, जो निचले आर्थिक स्तरों पर रहने वाले करोड़ों लोगों के लिए बेहतर जीवन सुनिश्चित करती है?

भारत में एक कठोर प्रतिक्रिया की जाती है। यह ऐसा सिद्धांत है, जो बड़ी मुश्किल से आत्मसंतुष्ट दोषारोपण में छुपाया गया है। इसके अनुसार, गरीबों को वही मिलता है, जिसके वे अधिकारी होते हैं, अपने दुर्भाग्य के लिए वे स्वयं जिम्मेदार हैं।

जब तर्कशीलता इस बात की पुष्टि कर देती है कि यह तो विसंगति है, गरीब तो पीड़ित हैं, निर्धनता को स्वनिर्मित दंड के तौर पर खारिज नहीं किया जा सकता, तो हम नियति सरीखे बचकाना बहानों का सहारा लेते हैं। यह आत्मसंतोष के लिए हमारी सबसे बड़ी दलील होती है।

हम अतीत में इसके जरिए बच निकले हैं, क्योंकि आशाहीन लोग मदद से भी दूर हुआ करते थे- अन्याय को चुनौती देने की क्षमता से वंचित, जो उन्हें मार रहा होता था, धीमे-धीमे, तड़पा कर। लोकतंत्र की महान उपलब्धियों में एक यह भी है कि ऐसी विनाशकारी गैरबराबरी नहीं टिक सकती। राजनीतिक अधिकार आर्थिक सशक्तीकरण का जरिया होते हैं या फिर अर्थहीन होते हैं।

सामंतशाही और उपनिवेशवाद क्रूरता के लंबे कालखंड के माध्यम से बच निकल सके, जिसमें दुर्भिक्ष चरम लक्षण था। लेकिन सबसे अच्छे शासक और वाइसराय जानते थे कि जब आर्थिक भेदभाव की नीतियों के जरिए गरीब मौत के मुंह में धकेले जाते हैं, तो साम्राज्य भरभरा उठते हैं।

मेरी लाइब्रेरी में मौजूद ‘जहांगीरनामा’ का एक अमेरिकी संग्रहालयीन संस्करण मुगलकालीन चित्रों से सुसज्जित है। इसमें अनेक वीरतापूर्ण दृश्यों के बीच जहांगीर के एक अनाकर्षक पोट्र्रेट को पूरे एक पृष्ठ की जगह दी गई है। शहंशाह ने शिकार या युद्ध नहीं, बल्कि एक बदसूरत चुड़ैल को मारने के लिए अपना धनुष ताना हुआ है।

यह ऐसी छवि है, जिसे भारत का शासक शायद ही भविष्य के लिए संरक्षित रखना चाहे। जब तक मैंने चित्र के साथ लिखी पंक्तियों को नहीं पढ़ लिया, मेरी माथापच्ची चलती रही। वह चुड़ैल गरीबी का रूप थी और शहंशाह गरीबी को खत्म कर रहा था।

दिवाली करीब ही है। शायद हमें धन जुटाकर ‘जहांगीरनामा’ का यह संस्करण दिवाली की भेंट के रूप में योजना आयोग के हर सदस्य को भेजना चाहिए।

http://www.bhaskar.com/article/ABH-eye-cheeky-sight-and-unseen-2487879.html


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