- अर्थशास्त्र के लिए 2001 में नोबल पुरस्कार जीतनेवाले प्रो जोसेफ इ स्टिगलिट्स ने सोमवार को पटना में आद्री के स्थापना दिवस व्याख्यान में बाजार, सरकार व समाज की भूमिका से लेकर अमेरिका के संकट तक को बहुत आसान शब्दों में रखा और बताया कि पूंजीवाद को लगातार पुनर्परिभाषित करते रहने की जरूरत क्यों है. हमलोग उनके इस व्याख्यान के बरक्स अपनी सरकारों के नीतिगत फैसलों, बाजार की भूमिका और अपने समाज...
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जलवायु संकट के बादल- अतुल कुमार सिंह
जनसत्ता 26 अक्टुबर, 2012: भारत समेत दुनिया के सामने दो सबसे अहम समस्याएं भुखमरी और जलवायु संकट हैं। ये दोनों ऐसे मुद्दे हैं जिनसे न केवल मानवता के भविष्य बल्कि पूरे जीव-जगत और अंतत: दुनिया के अस्तित्व का प्रश्न जुड़ा हुआ है। विश्व भर में इन मुद्दों पर खासी चर्चा और चिंताएं भी हैं। लेकिन इनसे निपटने के लिए जो उपाय सामने आ रहे हैं उनमें न तो मुकम्मलपन दिखता है और...
More »पर्यावरण भी हो विकास का मानक- अनिल पी जोशी
हमने विकास का सबसे बड़ा मापदंड सकल घरेलू उत्पाद की दर को माना है। किसी भी देश की प्रगति उसकी जीडीपी के आधार पर तय की जाती है। इसमें उद्योग, सुविधाएं, रियल इस्टेट बिजनेस, सेवाएं आदि मुख्य रूप से आते हैं। सही मायने में खेती को ही जीडीपी या उत्पादन की श्रेणी में आना चाहिए, क्योंकि अन्य उत्पाद हमारी सुविधाओं से जुड़े हैं, न कि आवश्यकताओं से। विकास की मौजूदा अवधारणा...
More »ऐसा भविष्य जो हम नहीं चाहते- वंदना शिवा
राजील का शहर रियो डे जेनेरियो यू टर्न के लिए मशहूर है। रियो +20 सम्मेलन ने भी इसी का अनुकरण किया है, जो धरती के जीवन को बचाए रखने की मानवीय जिम्मेदारी से पलटने का सबसे बड़ा उदाहरण था। बीस वर्ष पहले पृथ्वी सम्मेलन में जैव-विविधता के संरक्षण एवं विनाशकारी जलवायु परिवर्तन की रोकथाम के लिए कानूनी रूप से एक बाध्यकारी समझौते पर दस्तखत किए गए थे। जैव-विविधता पर सम्मेलन और...
More »शहरीकरण खा गया छह हजार हेक्टेयर लहलहाती जमीन
जालंधर. जितनी तेजी से खेती की जमीन में कालोनियां काटी जा रही हैं, उनमें उतनी तेजी से घर नहीं बन रहे। वजह, लोग रहने के लिए नहीं, बल्कि निवेश के लिए प्लाट खरीद रहे हैं। ऐसे में खेती की जमीन लगातार कम हो रही है। पिछले सात वर्षो में जालंधर में शहरीकरण के नीचे का रकबा 24 फीसदी बढ़ गया है। लगातार कम हो रही खेती की जमीन को लेकर खेतीबाड़ी...
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