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खेतिहर संकट | पलायन (माइग्रेशन)
पलायन (माइग्रेशन)

पलायन (माइग्रेशन)

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What's Inside

 

"भारत में आंतरिक प्रवासियों का सामाजिक समावेश" (2013) दस्तावेज़ हमारे समाज में मौजूद आंतरिक प्रवासियों के समावेश को बढ़ावा देने वाली प्रथाओं को दर्ज करने का कार्य करता है. यह दस्तावेज भारत में प्रवासियों के सामाजिक समावेश को सुविधाजनक बनाने के लिए पेशेवर और सरकारी अधिकारियों को सहायता करने के लिए प्रेरित करेगा. इस रिपोर्ट को प्रकाशित करने का यूनेस्को का मकसद भारत में आंतरिक पलायन पर लोगों की समझ और दृष्टि को बढ़ाना है, जिसके लिए प्रवासियों के बारे में फैलाए गए मिथकों और गलत धारणाओं को संबोधित कर साक्ष्य आधारित अनुभवों और प्रथाओं का प्रसार करके उनकी धारणा और चित्रण में प्रतिमान का बदलाव करना है ताकि प्रवासियों के सामाजिक समावेश को बढ़ावा मिल सके.

यूनिसेफ, यूनेस्को और सर दोराबजी टाटा ट्रस्ट द्वारा  तैयार की गई   भारत में आंतरिक प्रवासियों का सामाजिक समावेश (2013)   नामक रिपोर्ट के अनुसार:  (रिपोर्ट डाउनलोड करने के लिए कृपया यहां क्लिक करें):

प्रवासियों के बेहतर सामाजिक समावेश के लिए रिपोर्ट दस प्रमुख क्षेत्रों पर केंद्रित है: पंजीकरण और पहचान; राजनीतिक और नागरिक समावेश; श्रम बाजार समावेश; कानूनी सहायता और विवाद समाधान; महिला प्रवासियों का समावेश; भोजन तक पहुंच के माध्यम से समावेश; आवास के माध्यम से समावेश; शैक्षिक समावेश; सार्वजनिक स्वास्थ्य समावेश और वित्तीय समावेशन.

आंतरिक पलायन के आंकड़े

भारत की जनगणना 2001 के अनुसार, भारत में 30.9 करोड़ की बड़ी आबादी आंतरिक प्रवासी है और हाल के अनुमानों से पता चलता है कि देश में 32.6 करोड़ (एनएसएसओ 2007-2008) आंतरिक प्रवासी हैं जोकि कुल आबादी का लगभग 30 प्रतिशत है. आंतरिक प्रवासियों, जिनमें से 70.7 प्रतिशत महिलाएं हैं, को समाज के आर्थिक, सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक जीवन से बाहर रखा गया है और अक्सर उन्हें द्वितीय श्रेणी के नागरिक समझा जाता है.

ग्रामीण क्षेत्रों में 91.3 प्रतिशत महिलाओं और शहरी क्षेत्रों में 60.8 प्रतिशत (एनएसएसओ 2007–08) महिला प्रवासियों द्वारा विवाह को पलायन का सबसे प्रमुख कारण बताया जाता है: रोजगार के लिए महिलाओं का पलायन भी सांस्कृतिक कारकों के कारण कम ही दर्ज किया जाता है. अक्सर महिलाओं की आर्थिक भूमिकाओं (शांति, 2006) के बजाय उनकी सामाजिक भूमिका पर जोर देता है, जिसकी वजह से महिलाएं समाज की अदृश्य आर्थिक योगदानकर्ता बन जाती हैं.

भारत में लगभग 30 प्रतिशत आंतरिक प्रवासी 15-29 वर्ष आयु वर्ग (राजन, 2013; जनगणना, 2001) युवा वर्ग के हैं. प्रवासी बच्चों की अनुमानित संख्या लगभग 1.5 करोड़ (डैनियल, 2011; स्मिता, 2011) है. इसके अलावा, कई अध्ययनों से पता चला है कि पलायन हमेशा स्थायी नहीं होता है, यह मौसमी भी होता है. खासकर सामाजिक-आर्थिक रूप से वंचित समूहों, जैसे अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी) और अन्य पिछड़ी जातियों (ओबीसी), में मौसमी पलायन (सीजनल माइग्रेशन) व्यापक चलन है. इन मौसमी प्रवासियों की कमजोर आर्थिक हालात और मुश्किल जीवन यापन (देशिंगकर और एकटर, 2009) के चलते ये मौसमी पलायन करते हैं.

लगभग आंतरिक प्रवासी उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडिशा, उत्तराखंड और तमिलनाडु जैसे राज्यों से पलायन करते हैं, जबकि प्रमुख गंतव्य क्षेत्र दिल्ली, महाराष्ट्र, गुजरात, हरियाणा, पंजाब और कर्नाटक हैं. देश के भीतर विशिष्ट माइग्रेशन कॉरिडोर हैं, जैसे कि: बिहार से राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र, बिहार से हरियाणा और पंजाब, उत्तर प्रदेश से महाराष्ट्र, ओडिशा से गुजरात, ओडिशा से आंध्र प्रदेश और राजस्थान से गुजरात.

भारत में पलायन मुख्य रूप से दो प्रकार के होते हैं: (ए) दीर्घकालिक पलायन, जिसके परिणामस्वरूप कोई व्यक्ति या गृहस्थी अपना मूल स्थान छोड़कर किसी दूसरी जगह लंबे समय के लिए पलायन करता है और  (बी) अल्पकालिक या मौसमी पलायन, जिसमें कोई व्यक्ति अपने मूल स्थान और कार्य स्थल के बीच लगातार आवाजाही रखता है. अल्पकालिक प्रवासियों का अनुमान 1.5 करोड़ (NSSO 20072008) से 10 करोड़ (Deshingkar और Akter, 2009) के बीच बदलता रहता है. फिर भी, बड़े सर्वेक्षण जैसे कि जनगणना, अल्पकालिक प्रवासियों के प्रवाह को पर्याप्त रूप से दर्ज करने में विफल रहते हैं और पलायन के माध्यमिक यानी दूसरे कारणों को रिकॉर्ड नहीं करते हैं.

भारत की शहरी आबादी में लगभग एक तिहाई आंतरिक प्रवासी हैं, और यह अनुपात बढ़ रहा है: 1983 में 31.6 प्रतिशत से 1999-2000 में 33 प्रतिशत और 2007-08 (एनएसएसओ 2007-08) में 35 प्रतिशत. शहरी क्षेत्रों में पलायन दर में वृद्धि मुख्य रूप से महिलाओं की पलायन दर में वृद्धि के कारण हुई है, जो 1993 में 38.2 प्रतिशत से बढ़कर 1999-2000 में 41.8 प्रतिशत, और 2007-08 में बढ़कर 45.6 प्रतिशत हो गई है.

इस अवधि में शहरी क्षेत्रों में पुरुष पलायन दर (26 और 27 प्रतिशत के बीच) स्थिर रही है, लेकिन पुरुषों के प्रवास के लिए रोजगार से संबंधित पलायन दर 1993 में 42 प्रतिशत से साल 2000 में बढ़कर 52 प्रतिशत और 2007-08 में बढ़कर 56 प्रतिशत हो गई.

भारत के सकल घरेलू उत्पाद में शहरों का बढ़ता योगदान पलायन और प्रवासी श्रमिकों के बिना संभव नहीं होगा. कुछ महत्वपूर्ण क्षेत्र जिनमें प्रवासी काम करते हैं, उनमें निर्माण, ईंट भट्टा, नमक पान, कालीन और कढ़ाई, वाणिज्यिक और वृक्षारोपण, कृषि और शहरी अनौपचारिक क्षेत्रों में विभिन्न प्रकार की नौकरियां जैसे विक्रेता, फेरीवाले, रिक्शा चालक, दैनिक कामगार और घरेलू काम (भगत, 2012) शामिल हैं.

अर्थव्यवस्था में प्रवासियों का योगदान

भारत में प्रमुख प्रवासी रोजगार क्षेत्रों पर आधारित मौसमी प्रवासियों के आर्थिक योगदान की जांच करने वाले एक स्वतंत्र अध्ययन से पता चला है कि वे राष्ट्रीय सकल घरेलू उत्पाद (देशकॉकर और एक्टर, 2009) में 10 प्रतिशत का योगदान करते हैं.

तुम्बे (2011) के अनुसार, घरेलू प्रेषण बाजार का अनुमान 2007-08 में लगभग 10 बिलियन अमरीकी डॉलर था. बढ़ती आय के साथ, प्रवासी प्रेषण मानव पूंजी निर्माण, विशेष रूप से स्वास्थ्य पर खर्च में वृद्धि, और कुछ हद तक शिक्षा (देशनांग और सैंडी, 2012) में भी निवेश को प्रोत्साहित कर सकते हैं.

महिला प्रवासियों की स्थिति

महिला प्रवासियों को दोहरे भेदभाव का सामना करना पड़ता है, इन महिलाओं को लिंग-आधारित हिंसा, और शारीरिक, यौन या मनोवैज्ञानिक शोषण, शोषण और तस्करी जैसी कठिनाइयों के अजीबोगरीब गठजोड़ का सामना करना पड़ता है.

महिला प्रवासी श्रमिकों में शिक्षा, अनुभव और कौशल की कमी के कारण अवैध प्लेसमेंट एजेंसियां और दलाल मिलकर उनका शोषण करते हैं.

अनुमान बताते हैं कि भारत में घरेलू कामगारों की संख्या 47 लाख (NSS 2004-05) से 64 लाख (जनगणना 2001) (MoLE, 2011) तक है.

असंगठित क्षेत्र के राष्ट्रीय उद्यम आयोग ने अनुमान लगाया है कि 40 लाख घरेलू कामगारों में से 92 प्रतिशत महिलाएं, लड़कियां और बच्चे हैं और 20 प्रतिशत 14 वर्ष से कम उम्र के हैं. हालांकि, अन्य स्रोतों से पता चलता है कि इन आंकड़ों को कम करके आंका गया है और देश में घरेलू श्रमिकों की संख्या बहुत अधिक हो सकती है. कहा जाता है कि यह क्षेत्र 1999-2000 से 222 प्रतिशत बढ़ा है और शहरी भारत में महिला रोजगार का सबसे बड़ा क्षेत्र है, जिसमें लगभग 3 लाख महिलाएं (MoLE, 2011) शामिल हैं.

एनएसएसओ डेटा (2007-08) दर्शाता है कि ग्रामीण क्षेत्रों में लगभग 60 प्रतिशत महिलाएँ स्वयं-पोषित कामगार थीं और 37 प्रतिशत दिहाड़ी श्रमिक थीं, जबकि शहरी क्षेत्रों में, 43.7 प्रतिशत महिलाएँ स्वयं-पोषिक कामगार थीं और 37 प्रतिशत नियमित नौकरियों (श्रीवास्तव, 2012) में कार्यरत थीं.

प्रवासियों के अधिकार

प्रवासी मजदूर कई तरह की अड़चनों का सामना करते हैं, जिनमें औपचारिक निवास अधिकारों की कमी; पहचान प्रमाण की कमी; राजनीतिक प्रतिनिधित्व की कमी; अपर्याप्त आवास; कम-भुगतान, असुरक्षित या खतरनाक काम; तस्करी और यौन शोषण के लिए महिलाओं और बच्चों की अत्यधिक भेद्यता; जातीयता, धर्म, वर्ग या लिंग के आधार पर स्वास्थ्य और शिक्षा और भेदभाव जैसी राज्य-प्रदत्त सेवाओं से बहिष्करण शामिल हैं.

अधिकांश आंतरिक प्रवासियों को बुनियादी अधिकारों से वंचित किया जाता है. इस तथ्य के बावजूद कि प्रत्येक दस भारतीयों में से लगभग तीन आंतरिक प्रवासी हैं, सरकार द्वारा आंतरिक प्रवास को बहुत कम प्राथमिकता दी गई है, और भारतीय राज्य की मौजूदा नीतियां इस कमजोर समूह को कानूनी या सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने में विफल रही हैं. इसे आंतरिक प्रवास की सीमा, प्रकृति और परिमाण पर एक गंभीर डेटा गैप के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है.

पहचान और निवास के सबूतों के अभाव में, आंतरिक प्रवासी सामाजिक सुरक्षा अधिकारों का दावा करने में असमर्थ हैं और सरकार प्रायोजित योजनाओं और कार्यक्रमों का लाभ नहीं ले पाते हैं. बच्चों को नियमित स्कूली शिक्षा में व्यवधान का सामना करना पड़ता है, जो उनके मानव पूंजी निर्माण को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करता है और गरीबी की पीढ़ी दर पीढ़ी संरचना में योगदान देता है.

आंतरिक प्रवासी अधिक मात्रा में एचआईवी (3.6 प्रतिशत) संक्रमित हैं, जो सामान्य आबादी (एनएसीओ, 2010) के बीच एचआईवी संक्रमण का दस गुना है. उनकी इस खराब स्थिति के लिए व्यक्तिगत अलगाव, उनका अकेलापन और यौन जोखिम लेने, एचआईवी जागरूकता की कमी और स्रोत और गंतव्य दोनों पर सामाजिक समर्थन नेटवर्क जैसी कमियों को जिम्मेदार ठहराया गया है (बोरहेड, 2012). अपनी जातीयता, भाषाई मतभेदों, धार्मिक मान्यताओं और सामाजिक-आर्थिक स्थितियों के कारण वे स्थानीय समुदाय से द्वारा बाहर फेंक दिए जाने के अलावा, एचआईवी और एड्स से संक्रमित प्रवासी दोहरे भेदभाव और अपमान का सामना करते हैं. एचआईवी से संक्रमित प्रवासी महिलाएं कई और अंतःक्रियात्मक कमजोरियों (IOM, 2009) से सबसे अधिक पीड़ित हैं.

एक अध्ययन के अनुसार, भारत में मौसमी प्रवासी श्रमिकों के राजनीतिक समावेश: धारणाएं, वास्तविकताएं और चुनौतियां (शर्मा एट अल, 2010), लगभग 60 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने चुनाव में कम से कम एक बार मतदान में भाग न लेने की सूचना दी क्योंकि वे काम की तलाश में घर से दूर थे. इसके अलावा, 54 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने दावा किया कि वे मतदान के इरादे से चुनाव के दौरान अपने घर गांवों में लौट आए थे, जिनमें से 74 प्रतिशत विशेष रूप से पंचायत (स्थानीय स्वशासन की ग्राम स्तरीय संस्था) के चुनावों के लिए लौटे थे.

प्रवासियों से गंदे, खतरनाक और अपमानजनक काम करवाए जाते हैं जो स्थानीय लोग नहीं करना चाहते हैं. यह "नौकरी छिनने से अलग है. प्रवासियों को स्वीकार नहीं करने या उन्हें सुविधाएं प्रदान करने से, सरकारें केवल प्रवास के जोखिम और लागत को बढ़ा रही हैं और इसकी विकास क्षमता को कम कर रही हैं."

Note: * The process of “circular migration” implies circularity, that is, a relatively open form of (cross-border) mobility. Such migration might involve seasonal stays or temporary work patterns.

 



Rural Expert
 

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