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खेतिहर संकट | पलायन (माइग्रेशन)
पलायन (माइग्रेशन)

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What's Inside

 

इस लॉकडाउन में कपड़ा उद्योग से जुड़े श्रमिकों की स्थिति पर दिल्ली स्थित एक एनजीओ ‘सोसाइटी फॉर लेबर एंड डेवलपमेंट’ ने ‘गारमेंट वर्कर्स इन इंडियाज लॉकडाउन सेमी स्टारवेसन एंड डी-ह्युमनाइजेशन लीड टू एक्सोडस’ (जून 2020 में जारी) नामक एक रिपोर्ट तैयार की है. इस रिपोर्ट में उन्होंने जांच की है कि कपड़ा उद्योग से जुड़े श्रमिकों को उनके नियोक्ता या सरकार द्वारा कोई आय सहायता न मिलने के कारण पैदा हुई प्रतिकूल परिस्थितियों का उनके और उनके परिवारों ने कैसे मुकाबला किया है. सोसाइटी फॉर लेबर एंड डेवलपमेंट द्वारा ने यह सर्वे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (यानी दिल्ली और उसके आसपास) और तमिलनाडु के तिरुप्पूर इलाके में किया गया था. मई, 2020 के दूसरे पखवाड़े में लगभग 100 कपड़ा श्रमिकों (ज्यादातर प्रवासी थे) से टेलीफोनिक साक्षात्कार किए गए थे. सर्वेक्षण में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के लगभग 72 श्रमिकों और तिरुप्पुर के 28 श्रमिकों ने भाग लिया था. उत्तर प्रदेश और बिहार में अपने गांवों में वापस लौट आए श्रमिकों के हालातों का भी ग्राउंड जीरो पर जाकर जायजा लिया.
रिपोर्ट के प्रमुख निष्कर्ष इस प्रकार हैं (एक्सेस करने के लिए कृपया यहां क्लिक करें):

• साक्षात्कार में 100 कपड़ा श्रमिकों में से 57 महिलाएं थीं और 43 पुरुष थे. 54 श्रमिक (23 पुरुष और 31 महिला) स्थायी रुप से कार्यरत थे और 44 श्रमिक कॉन्ट्रैक्ट (20 पुरुष और 24 महिला) पर काम कर रहे थे. दो महिला उत्तरदाता अपने घर से काम कर रही थीं. अधिकांश श्रमिक अंतर-राज्य प्रवासी थे और कुछ राज्य के आंतरिक प्रवासी (28 श्रमिक) थे. लगभग 69 प्रतिशत अंतर-राज्य प्रवासी श्रमिक भारत के उत्तरी बेल्ट से थे, जिसमें 49 प्रतिशत अकेले बिहार से संबंध रखते थे. रिपोर्ट में पाया गया कि सैंपल में भोजन की खपत पुरुषों के मुकाबले महिलाओं में अधिक थी. ऐसा नमूने में अधिक संख्या में विवाहित महिलाओं की उपस्थिति के कारण ऐसा हो सकता है, जिनको अविवाहित पुरुष उत्तरदाताओं के उल्ट अपने परिवार का पालन-पोषण करना पड़ता होगा.

• रिपोर्ट के अनुसार, लॉकडाउन मार्च के अंतिम सप्ताह में लगाया गया था, केवल 19 प्रतिशत श्रमिकों (100 श्रमिकों में से 19) को नकद या किसी न किसी रूप में अग्रिम भुगतान किया गया. नकद या अग्रिम भुगतान भी भविष्य में ओवरटाइम काम करने पर मिलने वाली आय में कटौती की शर्त पर दिया गया था. उन्हें सिर्फ 1,800 रुपए से लेकर 10,969 रुपए प्रति श्रमिक भुगतान दिया गया था. स्थायी कर्मचारी कपड़ा निर्यातकों से अपना बकाया प्राप्त करने में विफल रहे. ठेकेदारों ने अपने मोबाइल फोन स्विच ऑफ करके श्रमिकों को उनके हाल पर छोड़ दिया. रिपोर्ट बताती है कि सरकार ने लॉकडाउन के दौरान श्रमिकों को आय सहायता प्रदान करके उनकी मदद नहीं की. लॉकडाउन संकट के दौरान, सरकार ने केवल उन महिलाओं को केवल 500 रुपए दिए जिनके पास बैंक खाते थे.

• कृपया ध्यान दें कि सरकार ने 26 मार्च, 2020 को घोषित किया था कि राहत के तौर पर अप्रैल से शुरू होने वाले अगले तीन महीनों के लिए महिला जन धन खाता धारकों को 500 रुपये दिए जाएंगे. यह प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना का हिस्सा था.

• कपड़ा श्रमिकों को नियोक्ता या सरकार द्वारा किसी भी तरह की आय सहायता प्रदान नहीं की गई. चूंकि अधिकांश उत्तरदाता प्रवासी थे, इस वजह से उनके पास राशन कार्ड नहीं थे जिससे कि उन्हें सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) की की दुकानों से उचित दामों पर सब्सिडी वाले खाद्यान्न मिल पाते. प्रवासियों के पास अपने वर्तमान आवासीय पते का कोई सबूत नहीं था क्योंकि जहां पर वे काम कर रहे थे, उन कारखानों ने उन्हें पहचान पत्र नहीं दिया गया था. इसके अलावा, उनके मकान मालिकों ने उन्हें किराए की कोई रसीद भी नहीं दी थी. इसलिए, वे अपने वर्तमान स्थानीय पते के किसी भी तरह के प्रमाण दिखाने में असमर्थ थे. सर्वेक्षण के परिणाम बताते हैं कि केवल 20 श्रमिक ही सरकार द्वारा दिए जाने वाले सब्सिडाइज्ड खाद्यान्न प्राप्त कर पाए थे. कुछ ट्रेड यूनियनों और एनजीओ उनकी मदद के लिए आगे आए और तालाबंदी के दौरान कपड़ा श्रमिकों को पका हुआ भोजन प्रदान किया. जवाब देने वाले 97 श्रमिकों में से, छह श्रमिक बड़ी मुश्किल से एक दिन में एक ही बार भोजन कर पा रहे थे जबकि 69 श्रमिक लॉकडाउन के दौरान एक दिन में दो बार भोजन खा पा रहे थे. दो श्रमिकों ने बताया कि वे दिन में एक बार ही भोजन कर पा रहे हैं और कभी-कभी दिन में दो बार भी भोजन खा पाते हैं. इस प्रकार, 82 प्रतिशत श्रमिक लॉकडाउन के दौरान दिन में केवल दो या उससे कम बार भोजन खा सकते थे. अगर संक्षेप में कहें तो, अधिकांश कपड़ा श्रमिकों और उनके परिवारों ने उस अवधि के दौरान भुखमरी का अनुभव किया.

• सोसाइटी फॉर लेबर एंड डेवलपमेंट की रिपोर्ट से पता चलता है कि अधिकांश आंतरिक राज्य प्रवासी अपने आस-पास के गांवों में वापस चले गए, जबकि अंतर-राज्य प्रवासी शहरों या उन जगहों पर पैसे के बिना फंसे हुए थे, जहां वे काम कर रहे थे. उन्हें भूख और भुखमरी का सामना करना पड़ रहा था. कई लोगों ने अपनी बचत के पैसे का इस्तेमाल किया या अपनी मूल जगह पर वापस लौटाने के लिए पैसे उधार लिए. अनुमान बताते हैं कि तिरुप्पुर में लगभग 40 प्रतिशत अंतर-राज्य के प्रवासी अपने गाँव / मूल निवास वापस चले गए. बिहार और उत्तर प्रदेश में की गई जमीनी पड़ताल में पाया गया है कि जो कर्मचारी वापस गए थे, उन्होंने प्रति माह लगभग 20 प्रतिशत की ब्याज दर पर महाजनों से पैसा उधार लिया था. प्रवासी श्रमिक इस बात से डर रहे थे कि अगर वे यह रकम वापस न कर पाए तो, इतनी ज्यादा ब्याज दरें कहीं उनसे उनकी संपत्ति न छीनवा दें. अपने मूल स्थान पर वापस जाने वाले प्रवासियों ने कहा कि वे अपने आप को असहाय महसूस कर रहे थे और अपने गांवों में जीवित न रह पाने का डर उन्हें घेरे हुए था. रिपोर्ट बताती है कि लॉकडाउन ने सरकार के वर्गवादी स्वभाव को उजागर कर दिया क्योंकि सरकार ने मध्यम और उच्च वर्ग के छात्रों के लिए त्वरित यात्रा सुविधाओं की व्यवस्था कर दी थी, जबकि प्रवासियों के लिए उन सुविधाओं की व्यवस्था बहुत बाद की गई.

• रिपोर्ट में ऐसे उदाहरणों का जिक्र है जिनमें तिरुप्पुर में प्रवासियों को उनकी इच्छा के विरुद्ध शयनगृह में रखा गया था और उन्हें खाने के लिए खराब गुणवत्ता वाला भोजन दिया जा रहा था. उन्हें वहां रहने के लिए जबरदस्ती मजबूर किया गया. तिरुप्पुर में विरोध प्रदर्शन हुए और कुछ श्रमिकों को पुलिस ने विरोध करने पर गिरफ्तार कर लिया. कुछ प्रवासियों ने कहा कि वे काम पर वापस नहीं जाएंगे जबकि अन्य का मानना था कि वे वापस जा सकते हैं क्योंकि उनके गाँव / मूल स्थान पर बहुत सीमित अवसर उपलब्ध हैं. रिपोर्ट के अनुसार, दिहाड़ी-मजूरी बढ़ने के कारण परिधान उद्योग में मजदूरों की जगह स्वचाचित मशीनें ले सकती हैं. शहरी क्षेत्रों में कुशल श्रमिकों की उपलब्धता की कमी और मांग-आपूर्ति के बढ़ने के कारण, मजदूरी बढ़ने की उम्मीद है. रिपोर्ट में कहा गया है कि नियोक्ताओं के साथ-साथ सरकार द्वारा आय सहायता उपलब्ध न करवाए जाने के कारण सरकार ने कपड़ा श्रमिकों को भूख की तऱफ धकेल दिया है, इतना ही नहीं, उन्हें सम्मानित मानवीय जिंदगी से भी वंचित कर दिया है. जिसके नतीजतन, लॉकडाउन लागू होने पर शहरों से गांवों में प्रवासियों का सामूहिक पलायन हुआ.

• रिपोर्ट परिधान निर्यातकों के दो सर्वेक्षणों का हवाला देती है, जो कि मई 2020 में परिधान निर्यात संवर्धन निगम द्वारा आयोजित किया गया था. उन दोनों सर्वेक्षणों के दौरान लगभग 105 और 88 निर्यातकों का सर्वेक्षण किया गया था. लगभग 83 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने कहा कि उनके ऑर्डर पूरी तरह से या आंशिक रूप से रद्द कर दिए गए थे. लगभग 72 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने कहा कि खरीदार पहले से खरीदी गई सामग्रियों की जिम्मेदारी नहीं ले रहे थे. लगभग 52 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने कहा कि खरीदार पहले से ही भेजे गए माल भेजने पर छूट के लिए पूछ रहे थे. उत्तरदाताओं में, लगभग 72 प्रतिशत ने इस बात पर प्रकाश डाला कि खरीदार लगभग 20 प्रतिशत की छूट के लिए कह रहे थे, जबकि 27 प्रतिशत ने बताया कि खरीदार 40 प्रतिशत या उससे अधिक के लिए छूट मांग रहे थे. लगभग 88 प्रतिशत निर्यातकों ने अपने कर्मचारियों को मजदूरी देने में असमर्थता व्यक्त की.

[बालू एन वरदराज और नबारुन सेनगुप्ता, जो टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज, हैदराबाद से डेवलपमेंट स्टडीज (प्रथम वर्ष) में एमए कर रहे हैं. इन दोनों ने सोसाइटी फॉर लेबर एंड डेवलपमेंट द्वारा जारी की गई इस रिपोर्ट का सारांश तैयार करने में इनक्लूसिव मीडिया फॉर चेंज की मदद की. बालू और नबारुन ने जून-जुलाई 2020 में इनक्लूसिव मीडिया फॉर चेंज प्रोजेक्ट में अपनी इंटर्नशिप के दौरान यह काम किया है.]



Rural Expert
 

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