Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 150
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 151
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Warning (512): Unable to emit headers. Headers sent in file=/home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php line=853 [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 48]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 148]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 181]
भूख | भुखमरी-एक आकलन
भुखमरी-एक आकलन

भुखमरी-एक आकलन

Share this article Share this article

What's Inside


आक्सफैम द्वारा प्रस्तुत नॉरिश साऊथ एशिया- ग्रो अ बेटर फ्यूचर फॉर रिजनल फूड जस्टिस-(लेखक स्वाति नारायण, सितंबर 2011) नामक रिपोर्ट के अनुसार- http://www.oxfam.org/sites/www.oxfam.org/files/cr-nourish-
south-asia-grow-260911-en.pdf

 

बच्चों की दशा भुखमरी की स्थिति में सबसे ज्यादा दयनीय होती है।भारत में  प्रतिदिनघर, पुनर्वास केंद्र और अस्पतालों में  2000 से ज्यादा बच्चे भोजन की कमी का शिकार होकर मरते हैं और इसकी कोई खबर मीडिया में नहीं बनती।

 

खाद्य-संकट और वित्तीय-संकट जिस समय अपनी चरम सीमा पर था उस वक्त दक्षिण एशिया में 10 करोड़ से ज्यादा लोग एकबारगी भोजन की कमी के शिकार लोगों की श्रेणी में शामिल हुए। इस सिलसिले में यह गुजरे चार दशकों की सबसे बड़ी संख्या है।

 

भारत में भूमि-सुधार को दशकों बीत चुके हैं लेकिन देश की 41 फीसदी ग्रामीण जनता व्यवहारिक अर्थो में भूमि हीन है।

 

पाँच सालों के अंदर(2009-10) महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना का विस्तार पाँच करोड़ 30 लाख परिवारों यानी हद से हद भारतीय ग्रामीण आबादी के 33 फीसदी तक हो पाया है।

 

चूंकि नरेगा में पंचायत के द्वारा इस बात का फैसला होता है कि किस तरह की योजना पर काम होगा इसलिए नरेगा के तहत होने वाले सार्वजनिक निर्माण के काम पर्यावरणीय सुरक्षा को प्रधान मानकर होते हैं (क्योंकि कामों के चयन में यह दृष्टि कानून के हिसाब से जरुरी है) गुजरे तीन सालों में नरेगा के अन्तर्गत 10 लाख 90 हजार काम जल-संरक्षण और बाढ़-बचाव से संबंधित किए गए हैं।

 

भारत में 10 करोड़ हेक्टेयर जमीन जट्रोफा की खेती के लिए रख छोड़ी गई है। व्यवहारिक रुप से देखें तो 85 फीसदी किसानों ने जट्रोफा की खेती से तौबा कर लिया है।

 

भारत में खाद्य-सुरक्षा के लिहाज से नीतिगत स्तर पर लापरवाही की एक मिसाल- भारत सरकार जट्रोफा की खेती को बढ़ावा देने और उसकी खेती के लिए बड़े आक्रामक तरीके से कदम उठा रही है। जट्रोफा की खेती फिलहाल 1 करोड़ 10 लाख हेक्टेयर(2 करोड़ 70 लाख एकड़) जमीन पर हो रही है। इसमें खेती-बाड़ी की नियमित जमीन भी शामिल है। इससे खाद्यान्नी फसलों की खेती बाधित हो रही है। भारत सरकार की मंशा है कि साल 2017 तक पेट्रोल-डीजल की खपत का 20 फीसदी जट्रोफा से पूरा हो। इस मंशा से छुटकारा पाना जरुरी है।

 

साल 2008-09 यानी खाद्य-संकट के साल में भी दक्षिण एशिया के ज्यादातर देशों में सरकारी खाद्य-भंडार भरपूर भरे हुए थे( जितना खाद्यान्न सुरक्षा के लिहाज से रखा जाना जरुरी है उससे ज्यादा मात्रा में खाद्यान्न भंडारों में मौजूद था)। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज ने उन दिनों याद दिलाया था कि भारत के सरकारी अन्न-भंडारघरों में जितना अनाज रखा हुआ है उसे अगर बिछा दिया जाय तो वह 10 लाख किलोमीटर लंबाई की सड़क को ढंक लेगा और इतनी लंबाई की सड़क पर चढ़कर कोई चाँद तक पहुंच सकता है।ज्यां द्रेज की यह बात आज के सूरतेहाल में भी सच है।

 

यद्यपि दक्षिण एशिया की आबादी में मौजूद गरीबों की तादाद का तीन चौथाई हिस्सा ग्रामीण इलाकों में रहता है, और इनमें ज्यादातर लोग अन्नोत्पादक हैं फिर भी इन्हें खाद्यान्न खरीदकर पेट भरना पड़ता है।ऐसे परिवारों के बजट में भोजन पर होने वाला खर्चा एक बड़ा मद है।दक्षिण एशिया में गरीब ग्रामीण परिवार अपनी आमदनी का 50 फीसदी हिस्सा भोजन पर खर्च करते हैं जबकि संयुक्त राज्य अमेरिका में यह आंकड़ा 17 फीसदी का है। खाद्य-कीमतों की स्फीति इस लिहाज से बड़ी मारक है। इसका सबसे ज्यादा असर गरीबों पर होता है।

 

दक्षिण एशिया में 25 करोड़ से ज्यादा की तादाद में दलितजन बड़ी दयनीय दशा में जीवन बसर करते हैं। असंवैधानिक करार दिए जाने के बावजूद अश्पृश्यता ने नए अवतार ग्रहण किए हैं। भारत भर के 35 फीसदी गांवों के सर्वेक्षण के बाद पाया गए कि दलित किसानों को स्थानीय बाजार में अपने उत्पाद बेचने से रोका जाता है। मुसहर जनजाति के लोग खाद्य-सुरक्षा के लिहाज से सबसे ज्यादा चिंताजनक स्थिति में हैं।

 

देश की आबादी में जनजातीय की तादाद महज 9 फीसदी है लेकिन गुजरे तीन दशकों में इनमें से 5 करोड़ 50 लाख आदिवासी अपनी परंपरागत रिहायशी इलाके और जीविका को कारखाने, बड़े बाँध तथा अन्य विकास योजनाओं के कारण छोड़ने को बाध्य हुए हैं।

 

90 फीसदी जनजातीय आबादी या तो भूमिहीन है या फिर उनके पास इतनी कम जमीन है कि पेट भरने लायक अनाज नहीं हो पाता। द सेंटर फॉर एन्वायर्नमेंट एंड फूड सिक्युरिटी के एक सर्वेक्षण(2005) का निष्कर्ष है कि कि 99 फीसदी आदिवासी परिवार निरंतर भोजन की कमी झेलते हैं। उन्होंने साल के किसी भी महीने हर रोज दो जून की रोटी नसीब नहीं होती।

 

दक्षिण एशिया की दो तिहाई आबादी सामंती ग्रामीण परिवेश में रहती है। यहां भोजन के लिए जमीन का होना जरुरी है लेकिन इन इलाकों में जमीन कुछेक लोगों के हाथ में केंद्रित है। हालांकि जमींदारी की प्रथा कानून खत्म हो गई है लेकिन सही मायनों में अभी भूमि-सुधार(आबंटन के अर्थ में) होना बाकी है।

 

दक्षिण एशिया में तकरीबन दो तिहाई किसानों के पास 5 एकड़ से भी कम जमीन है। ज्यादातर किसान ऐसे हैं जिनके पास जोती जा रही जमीन की मिल्कियत नहीं है।

 

भारत में कृषिगत श्रमशक्ति में महिलाओं की हिस्सेदारी 30 फीसदी की है।

 

तकरीबन 46 फीसदी महिलाएं ऐसी हैं जिनका कृषिगत श्रम में योगदान तो है लेकिन उन्हें इससे आय अर्जित नहीं होता क्योंकि वे कृषिकर्म में पारिवारिक सदस्य के तौर पर भाग लेती हैं और इस तरह उन्हें कोई भुगतान नहीं होता।

 

भारत में महज 40 फीसदी गरीबों को 11 सामाजिक सुरक्षा की योजनाओं से किसी तरह का लाभ हासिल होता है। इन 11 योजनाओं पर सरकार जीडीपी का 2 फीसदी व्यय करती है।

 

भारत में 1960 में खेती का जीडीपी में हिस्सा 62 फीसदी था जबकि 2011 में मात्र 17 फीसदी। इस समस्या की मूल बात यह है कि ग्रामीण इलाके में आधी से अधिक आबादी जीविका के लिए खेती पर निर्भर है।

 

1950 के बाद से अबतक दक्षिण एशिया की जनसंख्या तीन गुनी हो गई है। अगले चालीस सालों में इलाके की आबादी 2.3 अरब हो जाएगी। पैदावार की कमी और खाद्य-सुरक्षा की मौजूदा स्थिति जारी रही तो इतनी बड़ी आबादी का पेट भरना मुश्किल होगा।

 

फिलहाल पूरे दक्षिण एशिया में 1730 फीसदी आबादी को उतनी खाद्य-उर्जा हासिल नहीं है जितने को वैश्विक स्तर पर मानक माना गया है।

 

गुजरे चार दशकों में दक्षिण एशिया में खाद्यान्न का उत्पादन तीन गुना बढ़ा है लेकिन प्रति व्यक्ति खाद्य-उपलब्धता इसके परिमाण में नहीं बढ़ी है।बीते 17 सालों में भारत की आबादी 17 फीसदी बढ़ी है जबकि खाद्यान्न का उत्पादन इस वृद्धि-दर की तुलना में आधा रहा है।

 

छोटे और सीमांत किसानों को मिल रही सब्सिडी को व्यस्थित रुप से खत्म किया गया है। साल 2010 में उर्वरक-सब्सिडी का स्थान कैश-सब्सिडी ने लिया। एक्सटेंशन सर्विसेज के लिए बज़ट अब ना के बराबर होता है और कृषिगत शोधसंस्थान दयनीय दशा में हैं।

 

भारत सरकार का आकलन है कि साल 1990 से अबतक महज 1.5 फीसदी कृषिगत जमीन गैर खेतिहर कामों में इस्तेमाल की गई है। परंतु जमीन की इतनी मात्रा से भी 4 करोड़ 30 लाख लोगों के पेट को भरने लायक अनाज सालाना उपजाया जा सकता था।

 

पूरे दक्षिण एशिया में 60 फीसदी कृषि-क्षेत्र मॉनसून की वर्षा पर निर्भर है।

 

भारत सरकार द्वारा निर्गत अनाज का महज 41 फीसदी हिस्सा गरीबों को मिल पाता है।

 

साल 2008 में भारत सरकार ने किसानों की आत्महत्या के मद्देनजर तकरीबन 4 करोड़ किसानों को दिए गए 15 बिलियन डॉलर का कर्ज माफ कर दिया लेकिन इसका ज्यादा सकारात्मक असर देखने में नहीं आया।

 

भारत में प्रतिदिन तकरीबन 130 करोड़ रुपये के फल-सब्जी बाजार में पहुंचने से पहले बर्बाद हो जाते हैं।

















































     
  •  
  •  
  •  
  •  
  •  
  •  
  •  
  •  
  •  
  •  
  •  
  •  
  •  
  •  
  •  
  •  
  •  
  •  
  •  
  •  
  •  
  •  
  •  
  •  
  •  
  •  
  •  
  •  
  •  
  •  
  •  
  •  
  •  
  •  
  •  
  •  
  •  
  •  
  •  
  •  
  •  
  •  
  •  
  •  
  •  
  •  


 

Write Comments

Your email address will not be published. Required fields are marked *

*

Video Archives

Archives

share on Facebook
Twitter
RSS
Feedback
Read Later

Contact Form

Please enter security code
      Close