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पर्यावरण | खेती पर असर
खेती पर असर

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एफएओ द्वारा प्रस्तुत अध्ययन स्मॉल होल्डर एंड सस्टेनेबल वेल्स- ए रेट्रोस्पेक्ट: पार्टिसिपेटरी ग्राऊंडवाटर मैनेजमेंट इन आंध्रप्रदेश(नवम्बर 2013) के अनुसार-

 

http://www.fao.org/docrep/018/i3320e/i3320e.PDF

 

-भारत के कुल गरीब आबादी की 69 फीसदी तदाद सिंचाई की सुविधा से वंचित इलाकों में रहती है जबकि सिंचाई की सुविधा से संपन्न इलाकों में गरीबों की संख्या महज 2 फीसदी है।

-साल 1965-66 अनाज का उत्पादन 19 फीसदी घटा जबकि साल 1987-88 में मात्र 2 फीसदी जबकि इन दोनों ही सालों में खेती सूखे की चपेट में आई।

-पुस्तक के अनुसार साल 1951-1990 के बीच भूमिगत जल के दोहन में इस्तेमाल होने वाले साधनों की संख्या में नाटकीय ढंग से इजाफा हुआ। खुदाई करके बनाये जाने वाले कुओं की संख्या 3 लाख 86 हजार से बढ़कर 90 लाख 49 हजार हो गई जबकि कम गहराई वाले ट्यूबवेल की संख्या 3 हजार से बढ़कर 40 लाख 75 हजार के पार चली गई।

-सार्वजनिक ट्यूबवेल(ज्यादा गहराई वाले) की संख्या 2400 से बढ़कर 63600 हो गई। ठीक इसी तरह इलेक्ट्रिक पंपसेट 21 हजार से बढ़कर 80 लाख 23 हजार हो गये और डीजल पंपसेटस् की संख्या 66 हजार से बढ़कर 40 लाख 35 हजार पर पहुंच गई।

-अनुमान के मुताबिक भारत में सालाना 1086 क्यूबिक लीटर पानी इस्तेमाल किए जाने के लिए मौजूद होता है। इसमें भूगर्भी जल की मात्रा 396 क्यूबिक लीटर है जबकि भूसतह पर मौजूद जल की मात्रा 690 क्यूबिक लीटर  मौजूदा स्थिति में 600 क्यूबिक लीटर पानी का इस्तेमाल होता है। जनसंख्या की बढ़ोत्तरी के कारण साल 2050 तक भारत में सालाना 900 क्यूबिक लीटर पानी के इस्तेमाल की जरुरत पड़ेगी ताकि खेती और नगरपालिका संबंधी जरुरतों के अतिरिक्त औद्योगिक जरुरतों की भरपाई हो सके।

-भारत फिलहाल पानी की उपलब्धता के मामले में संपन्न माने वाले शीर्ष के 9 देशों में एक हैI लेकिन उपर्युक्त आकलन को देखते हुए कहा जा सकता है कि 2050 में भारत इस स्थिति में नहीं रहेगा इसलिए पानी के प्रबंधन की महती जरुरत है।

-राष्ट्रीय जन-जीवन में भूमिगत जल का महत्व असंदिग्ध है क्योंकि सिंचित कृषि का 60 फीसदी हिस्सा भूमिगत जल के दोहन पर निर्भर है साथ ही ग्रामीण इलाके में पेयजल की जरुरत का 85 प्रतिशत हिस्सा भूमिगत जल से पूरा होता है।

-यदि सभी बड़ी और छोटी सिंचाई परियोजनाओं(जिनका निर्माण पूरा हो गया है तथा जो अभी निर्माणाधीन हैं) का क्रियान्वयन हो जाय तो भी भूमिगत जल-स्रोत की महत्ता जरुरत को पूरा करने के लिहाज से बरकरार रहेगी, खासकर सुखाड़ के सालों में। इसलिए भूमिगत जल का टिकाऊ प्रबंधन भारतीय कृषि के लिए अनिवार्य है।

-भूमिगत जल के दोहन के साधनों के उत्तरोत्तर विकास के साथ भारत में सुखाड़ की विकरालता को कम करने में मदद मिली है। साल 1965-66 अनाज का उत्पादन 19 फीसदी घटा जबकि साल 1987-88 में मात्र 2 फीसदी जबकि इन दोनों ही सालों में खेती सूखे की चपेट में आई। इसमें भूमिगत जल के दोहन के साधनों की बढ़वार का बड़ा योगदान है।

-भूमिगत जल से सिंचित भारतीय कृषि-भूमि के परिमाण में बढ़ोत्तरी होने की वजह से कृषि की वर्षाजल पर निर्भरता कम हुई है, फसलों का उत्पादन बढ़ा है और ग्रामीण अर्थव्यवस्था पहले की तुलना में मजबूत हुई है।

 -भूतल पर मौजूद जल से सिंचाई के विपरीत भूमिगत जल से सिंचाई का काम करना हो तो किसान को अपना पैसा खर्च करना पड़ता है। नियोजन, निर्माण, संचालन, रख-रखाव के लिहाज से देखें तो बड़ी बाँध परियोजनाओं तथा भूतल पर मौजूद जल-क्षेत्र के विकास के लिए सरकारी वित्तीय सहायता मौजूद होती है जबकि भूमिगत जल के दोहन के मामले में ऐसा नहीं है जबकि देश की सिंचाई सुविधा संपन्न खेती का तकरीबन आधा हिस्सा भूमिगत जल से सिंचित होता है।

-विश्व की सिंचाई सुविधा संपन्न खेतिहर भूमि का 20 फीसदी हिस्सा भारत में है। इसका 62 फीसदी यानि तकरीबन 6 करोड़ 20 लाख हेक्टेयर कृषि भूमि भूगर्भी जल से सिंचित है।

-भारत में 76 फीसदी जोतों का आकार 2 हैक्टेयर या उससे भी कम है। इसमें 38 फीसदी हिस्सा कुओं के जरिए सिंचित होता है जबकि 35 प्रतिशत हिस्सा ट्यूबवेल के जरिए। इस वजह से छोटे किसानों के लिहाज से भूमिगत जल-प्रबंधन के उपाय अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।  

 

 

 



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