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पर्यावरण | खेती पर असर
खेती पर असर

खेती पर असर

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दीप्ति शर्मा और शरदेन्दु शरदेन्दु द्वारा प्रस्तुत एसेसिंग एग्रीकल्चरल सस्टेनेबेलिटी ओवर अ 60 इयर पीरियड इन रुरल ईस्टर्न इंडिया( द एन्वायरन्मेंटलिस्ट, खंड-31, संख्या-3 में प्रकाशित) शोध-अध्ययन का सारांश और प्रमुख निष्कर्ष-

http://www.springerlink.com/content/0051808851j537rq/

(यह अध्ययन गंगा के मैदानी इलाके में स्थित बिहार के समस्तीपुर जिले के गंगापुर गांव में किए गए सर्वेक्षण पर आधारित है। गांव 200 साल पुराना है और इतना ही पुराना है यहां जीविका के लिए खेती का चलन। तकरीबन 611.66 हेक्टेयर में फैले और लगभग 15,000 की आबादी वाले इस गांव के हर व्यस्क की जीविका खेती से चलती है, सालाना आमदनी का 70 फीसदी हिस्सा खेती से आता है, सो इस गांव का हर बालिग व्यक्ति या तो खेतिहर मजदूर है या किसान। गांव के कुछ व्यक्ति सरकारी नौकरी, छोटे-मोटे कारोबार या निर्माण-कार्यों के लिए दिहाड़ी मजदूरी से भी जीविका चलाते हैं।)


टिकाऊ खेती की परिभाषा-

·टिलमैन तथा अन्य ने टिकाऊ खेती की परिभाषा करते हुए इसे एक ऐसा व्यवहार माना है जिससे अभी और आगे के समय के लिए खाद्यान्न, रेशे तथा समाज की ऐसी ही अन्य जरुरतों को पूरा किया जा सके, साथ ही संसाधनों की संरक्षा के जरिए होने वाले समग्र लाभ को अधिकतम रखा जा सके। इसके लिए पूरे प्रकृति-परिवेश तथा मानव-विकास के बीच संतुलन बनाये रखना जरुरी होता है।

·इस परिभाषा से पता चलता है कि टिकाऊ खेती की अवधारणा खेती को एक बहुआयामी गतिविधि मानती है, खेती से पर्यावरण की सुरक्षा के सवाल जुड़े हैं, तो सामाजिक पायेदारी और आर्थिक टिकाऊपन के भी। खेती की अच्छी देखभाल और इससे जुड़ी नीतियों के निर्माण के लिए जरुरी है कि टिकाऊ खेती के लिहाज से जमीनी अनुभवों पर आधारित साक्ष्य आधारित निर्देशांक तैयार किया जाय।


टिकाऊ खेती के लिए निर्देशांक (एएसआई-एग्रीकल्चरल सस्टेनेबेलिटी इंडेक्स) की जरुरत

·खेती भारत की रीढ़ है। साल 2009 में सकल घरेलू उत्पाद में खेती ने $357,572.73 मिलियन डॉलर (17.1%) का योगदान किया। तकरीबन 60% भारतीय युवा ग्रामीण हैं और अंशतया या पूर्णतया खेती में योगदान करते हैं।

·आजादी से पहले भारत ने अकाल झेला तो खाद्यान्न की कमी भी। 1965 में बॉरलॉग किस्म(उच्च उत्पादकता) की फसलों के कारण ऊपज बढ़ी और देश 1970 के दशक में खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भरता की स्थिति में आ गया।

·लेकिन हरित-क्रांति के सकारात्मक प्रभाव अब मंद पड़ रहे हैं। साल 1965-1980 के बीच खेती में खाद-बीज-कीटनाशक-मशीन आदि के इस्तेमाल जिस गति से उत्पादकता बढ़ी उस गति से अब नहीं बढ़ रही जबकि इन मदों पर खर्चा बढ़ा है। इसके अतिरिक्त पंजाब, हरियाणा जैसे राज्यों में रासायनिक चीजों का इस्तेमाल खेती में बढ़ने से भूमि की उर्वरता कम हो रही है।

· खेती के टिकाऊपन का मापन राष्ट्रीय, प्रादेशिक, इलाकाई या स्थानीय स्तर पर हो सकता है लेकिन विद्वानों का मत है कि अध्ययन को सटीक बनाने के लिए जोत-आधारित सर्वेक्षण सबसे बेहतर है। भारत में दुर्भाग्यवश ग्रामीण-परिवेश के ऐसे अध्ययन बहुत कम हैं जबकि भारत की कुल आबादी का 70 फीसदी गांवों में ही रहता है।


अध्ययन की पद्धति


निर्देशांक तैयार करने के लिए कुल तीन श्रेणियों (सामाजिक, आर्थिक,पर्यावरणीय) के दस-दस प्रश्नों(संकेतकों) को आधार मानकर सर्वेक्षण किया गया -
 

सामाजिक- किसान की सा्क्षरता, आयु, शिक्षा, साफ पेयजल की सुविधा से संपन्न परिवारों का प्रतिशत, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र से घर की दूरी, प्रति व्यक्ति खेती की जमीन की उपलब्धता, जनसंख्या का घनत्व, कम आमदनी और ज्यादा आमदनी वाले परिवारों के बीच जोतों की मिल्कियत का अनुपात, प्रतिदिन हासिल बिजली(घंटों में), फोन-मोबाईल आदि की सुविधा वाले किसानों की संख्या


आर्थिक- प्रति हेक्येयर ऊपज, प्रति हेक्टेयर उर्वरक का इस्तेमाल, सिंचिति खेतों का प्रतिशत,दो फसली जमीन का प्रतिशत,उच्च उत्पादकता वाले फसलों की खेती की प्रतिशत मात्रा,व्यावसायिक बैकों से कर्ज लेने वाले किसानों की संख्या,अनौपतारिक स्रोतों से कर्ज लेने वाले किसानों की प्रतिशत संख्या,बस्ती से पांच किलोमीटर के दायरे में बसे शहरों की संख्या, सबसे नजदीकी कोल्डस्टोर की दूरी, सूखे के कारण 50 फीसदी ऊपज-हानि उठाने वाले किसानों की संख्या।


पर्यावरण- पर्यावरणीय सरोकारों के जानकार किसानों की संख्या, पर्यावरण के लिहाज से उचित माने जाने वाले कम से कम पांच खेतिहर-व्यवहार करने वाले किसानों की संख्या, स्थानीय स्तर की फसल प्रजाति के जीनपूल में आया क्षय, फसलों की कितनी प्रजातियों का इस्तेमाल खेती में कम हुआ है,कम से कम तीन प्रजाति के पशु कितने किसानों के पास हैं,मिट्टी के पीएच मान में बदलाव, हवा में सल्फर डायऑक्साईड और नाईट्रस ऑक्साईड की प्रतिशत मात्रा, भूमिगत पानी की कमी, स्थानीय सिंचाई साधनों में आ रही मात्रात्मक कमी।.



सर्वेक्षण के निषकर्ष-

· सर्वेक्षण के निष्कर्षों के अनुसार सामाजिक पायेदारी के लिहाज से खेती का आधार 1950-1960 तथा 1980-90 की तुलना में साल 2000-2010 की अवधि में मजबूत हुआ है। ऐसे ही रुझान आर्थिक टिकाऊपन के मामले में भी हैं लेकिन खेती के टिकाऊपन के लिए जरुरी पर्यावरणीय आधार उक्त अवधि में कमजोर हुआ है।

· खेती के टिकाऊपन के लिए जिन जरुरी चीजों में सर्वेक्षण के दौरान कमी देखने को मिली उसमें शामिल है- किसानों की उम्र तथा जनसंख्या के घनत्व का बढ़ना और प्रति व्यक्ति खेतिहर जमीन जमीन की उपलब्धता का कम होना।(बढ़ती उम्र के साथ किसान में खेती की नई और टिकाऊपन के लिहाज से जरुरी तकनीक या अभ्यास को सीखने की क्षमता में कमी आती है)I पर्यावरणीय जागरुकता, कृषिगत जैव-विविधता तथा बिजली-आपूर्ति की कमी को भी इसी श्रेणी में रखा जा सकता है।

· सर्वेक्षण का एक निष्कर्ष यह भी है कि ज्यादा आमदनी वाले परिवारों की तुलना में कम आमदनी वाले परिवारों के बीच भू-मिल्कियत में सुधार हुआ है लेकिन इसे पर्याप्त नहीं कहा जा सकता। साथ ही प्रति हैक्टेयर खाद्यान्न के उत्पादन में बढ़ोतरी हुई है लेकिन इसे भी पर्याप्त नहीं कहा जा सकता।

· सर्वेक्षण के निष्कर्ष के अनुसार गुजरे साठ सालों में टिकाऊ खेती के लिए बाधक सामाजिक असमानता कम हुई है लेकिन अब भी उच्च आमदनी और कम आमदनी वाले परिवारों के बीच बहुत ज्यादा का फासला है। इस असमानता का किसान पर मनोबैज्ञानिक असर होता है जिसका एक दुष्प्रभाव टिकाऊ खेती के की आदतों के ना विकसित होने के रुप में होता है। जनसंख्या का घनत्व बढ़ने से संसाधनगत गरीबी बढ़ी है जिससे कृषिगत उपज से मिलने वाला फायदा कम हुआ है।

· इलाके में रासायिनिक उर्वरकों तथा कीटनाशकों का उपयोग कम होने से मिट्टी की उर्वराशक्ति का क्षरण कम हुआ है।

· इलाके में फसलों तथा पशुधन के मामले में कृषिगत जैव-विविधता कम हुई है और इस कारण खेती के टिकाऊपन के लिए जरुरी पर्यावरणीय आधार कम हुआ है।

· शोध का निष्कर्ष है कि किसानों और कृषि-वैज्ञानिकों के बीच संवाद को बढ़ावा देना जरुरी है, साथ ही जरुरी है खेत और प्रयोगशाला के बीच की भौगोलिक और मानसिक दूरी को कम करना। जोतों का समाहारीकरण करके जोतों के आकार को बढ़ाया जा सकता है, इससे जोतों के विखंडन की समस्या से निबटा जा सकेगा। 

 

 



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