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भूख | सवाल सेहत का
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भारत में कुछ महत्वपूर्ण स्वास्थ्य संकेतकों के लिए राज्य-स्तरीय रुझान उपलब्ध रहे हैं, लेकिन भारत में अभी भी शोध और नीतिगत उद्देश्यों के लिए रोगों पर व्यापक मूल्यांकन, जिम्मेदार कारक, उनके समय के रुझान और पर्याप्त विस्तृत आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं. इस महत्वपूर्ण कार्य को करने के लिए अक्टूबर 2015 में भारत राज्य-स्तरीय बीमारी बर्डन पहल शुरू की गई थी, और यह इंडियन काउंसिल ऑफ़ मेडिकल रिसर्च (ICMR), पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ़ इंडिया (PHFI), इंस्टीट्यूट फॉर हेल्थ मेट्रिक्स एंड इवैल्यूएशन (IHME) और वरिष्ठ विशेषज्ञों और हितधारकों के बीच आपसी सहयोग से संभव हो पाया है, जिसमें कि भारत के लगभग 100 संस्थान शामिल हैं. इन सब ने देश के प्रत्येक राज्य में बीमारियों के कारण होने वाली मौतों का व्यापक मूल्यांकन किया है, और इसके बढ़ते प्रकोपों के लिए ज़िम्मेदार कारणों को तलाशने की कोशिश भी की है, और 1990 से 2016 तक यानी 26 साल के उनके रुझान का पता लगाया है.

अनुमानों को ग्लोबल बर्डन ऑफ डिजीज स्टडी 2016के एक हिस्से के तौर पर जारी किया गया था. विश्व स्तर पर रोगों से पड़ने वाले बोझ का आकलन करने के लिए, इस अध्ययन के विश्लेषणात्मक तरीकों को दो दशकों के वैज्ञानिक कार्यों में मानकीकृत कर 16,000 से अधिक सह-समीक्षा प्रकाशनों में रिपोर्ट किया गया है. ये विधियाँ भौगोलिक इकाइयों, लिंगों और आयु समूहों के बीच और एक संगठित तरीके से समय के साथ विभिन्न बीमारियों और जोखिम कारकों के कारण स्वास्थ्य हानि को पहचानने में सक्षम बनाती हैं. इस तुलना के लिए उपयोग की जाने वाली प्रमुख मीट्रिक disability-adjusted life years  (DALYs) है. रोगों के बोझ को ट्रैक करने के लिए DALYs के उपयोग की सिफारिश भारत की राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2017 द्वारा की गई है. तकनीकी वैज्ञानिक पत्र के साथ जारी की गई रिपोर्ट में प्रत्ये क राज्यक की स्वाास्य्ed  स्थिति और विभिन्नव राज्यों के बीच स्वास्थ्य असमानताओं पर व्यवस्थित अंतर्दृष्टि डाली गई है.

भारत: हेल्थ ऑफ द नेशन स्टेट्स -द इंडिया स्टेट-लेवल डिसीज बर्डन इनिशिएटिव, डिजीज बर्डन ट्रेंड्स इन इंडिया स्टेट्स ऑफ इंडिया 1990 से 2016 (अक्टूबर, 2017 में जारी) , इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (ICMR), पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया (PHFI), इंस्टीट्यूट फॉर हेल्थ मेट्रिक्स एंड इवैलुएशन (IHME) और स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय (MoHFW), द्वारा तैयार इस रिपोर्ट को देखने के लिए कृपया यहां क्लिक करें:

 

स्वास्थ्य की स्थिति में सुधार, लेकिन राज्यों के बीच हैं अभी बड़ी असमानताएं

साल 1990 में, भारत में महिलाओं की जीवन प्रत्याशा 59.7 वर्ष थी जोकि साल 2016 में बढ़कर 70.3 वर्ष और पुरुषों की जीवन प्रत्याशा 58.3 वर्ष से बढ़कर 66.9 वर्ष हो गई है. हालांकि, राज्यों के बीच असमानताएं अभी भी मौजूद हैं, जिनमें उत्तर प्रदेश में महिलाओं की जीवन प्रत्याशा 66.8 साल थी तो केरल में यह 78.7 साल थी. साल 2016 में पुरुषों की जीवन प्रत्याशा सबसे कम असम में 63.6 साल और सबसे ज्यादा केरल में 73.8 साल है.

इस समयावधि के दौरान जनसंख्या आयु संरचना में परिवर्तन के समायोजन के बाद, भारत में 1990 से 2016 तक प्रति व्यक्ति रोगों का बोझ कम हो गया है, लेकिन 2016 में असम, उत्तर प्रदेश और छत्तीसगढ़ सबसे अधिक दर वाले राज्यों और केरल और गोवा में सबसे कम दर वाले राज्यों के तौर पर दर्ज किए गए जिनकी रोग भार दर में लगभग दो गुना का अंतर था.

बेशक भारत में 1990 के बाद से रोग भार दर में सुधार हुआ है, लेकिन यह साल 2016 में श्रीलंका या चीन की तुलना में प्रति व्यक्ति 72 प्रतिशत अधिक था.

सभी राज्यों में 1990 से पांच साल से कम आयु के लिए शिशु मृत्यु दर काफी कम हो गई है, लेकिन 2016 में भी सबसे कम मृत्यु दर वाले राज्य केरल और सबसे ज्यादा दर वाले राज्य उत्तर प्रदेश व असम के बीच चार गुणा का अंतर है.

 

बीमारियों की बदलती प्रोफ़ाइल में राज्यों के बीच है बड़ा अंतर

भारत में रोग भार DALYs के रुप में मापा जाता है. साल 1990 में, कुल रोग भार में से, 61 प्रतिशत रोग भार संचारी, मातृ, नवजात और पोषण संबंधी बीमारियों (आसान भाषा में संक्रामक और संबंधित बीमारियां) के कारण था, जो 2016 में घटकर 33 प्रतिशत रह गया है.

हालांकि, गैर संचारी रोगों में वृद्धि हुई है. यह साल 1990 में कुल रोग भार के 30 प्रतिशत के मुकाबले 2016 में बढ़कर 55 प्रतिशत हो गया है, और चोटों में 9 प्रतिशत से 12 प्रतिशत की वृद्धि हुई है.

साल 1990 के अधिकांश राज्यों में संक्रामक और उससे संबंधित रोग अधिक देखने को मिलते थे, जोकि घटकर 2016 में सभी राज्यों में आधे से भी कम हो गए हैं.

साल 2016 में महामारी विज्ञान संक्रमण में राज्यों के बीच व्यापक बदलाव को दर्ज करने के लिए कुल रोग भार में प्रमुख रोग समूहों के योगदान की सीमा में परिलक्षित होते हैं, जिनमें गैर-संचारी रोगों के लिए 48 प्रतिशत से 75 प्रतिशत, संक्रामक रोगों के लिए 14 प्रतिशत से 43 प्रतिशत, और चोटों के लिए 9 प्रतिशत से 14 प्रतिशत. केरल, गोवा, और तमिलनाडु में संक्रामक रोगों से ज्यादा गैर-संचारी रोगों और चोट लगने से बहुत अधिक हानि हो रही है, जबकि बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश और राजस्थान में यह अंतर अभी मौजूद तो है लेकिन सबसे कम है.

यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि महामारी विज्ञान संक्रमण इस तथ्य की ओर इशारा करता है कि संक्रामक, मातृत्व, नवजात शिशु से जुड़ी बीमारी और पोषण संबंधी बीमारियों (CMNNDs) से जीवन की कम हानि हो रही है, और इसलिए अधिक लोग ग़ैर-संक्रामक रोगों (एनसीडी) की वजह से मर रहे हैं या उन रोगों से ज़्यादा पीड़ित होते हैं.

मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के प्रमुख ईएजी राज्यों में विकास संकेतकों का स्तर अपेक्षाकृत कम है और ये समान रूप से कम उन्नत महामारी विज्ञान संक्रमण चरण में हैं. हालांकि, उत्तर प्रदेश में क्रॉनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी रोग का प्रति व्यक्ति 50 प्रतिशत अधिक रोग बर्डन था, तपेदिक से 54 प्रतिशत अधिक बर्डन, और डायरिया से होने वाली बीमारियों से 30 प्रतिशत अधिक बर्डन था, जबकि मध्य प्रदेश में स्ट्रोक का प्रति व्यक्ति 76% रोग बर्डन था. मध्य प्रदेश में आमतौर पर हृदय संबंधी जोखिम अधिक थे, और असुरक्षित जल और स्वच्छता से जोखिम उत्तर प्रदेश में अपेक्षाकृत अधिक था.

उत्तर-पूर्व भारत के दो राज्य मणिपुर और त्रिपुरा दोनों महामारी विज्ञान संक्रमण के निचले-मध्य स्तर पर हैं, लेकिन विशिष्ट अग्रणी बीमारियों से काफी अलग रोग बर्डन दर हैं. त्रिपुरा में इस्केमिक हृदय रोग से बर्डन प्रति व्यक्ति 49% अधिक था, स्ट्रोक से 52 प्रतिशत अधिक, क्रॉनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज से 64 प्रतिशत अधिक, आयरन की कमी वाले एनीमिया से 159 प्रतिशत, कम श्वसन संक्रमण से 59 प्रतिशत अधिक, और 56 प्रतिशत से अधिक था. पुर्वोत्तर के राज्यों में 32.1 प्रतिशत पर रहकर, सी.एम.एन.एन.डी. की वजह से होने वाली मौतों का प्रतिशत केवल ईएजी राज्यों की तुलना में थोड़ा कम था, और अन्य राज्यों के समूह की तुलना में बहुत अधिक था। एनसीडी ने कुल मौतों में 58.8 प्रतिशत का योगदान दिया है, जबकि 9.1 प्रतिशत को चोटों के लिए ज़िम्मेदार ठहराया गया है। सी.एम.एन.एन.डी. में, मृत्यु के उच्चतम अनुपात वाले रोगों की श्रेणियों में दस्त, सांस की बीमारी का संक्रमण और अन्य सामान्य संक्रामक रोग (17 प्रतिशत) है, एचआईवी / एड्स और तपेदिक (6.1 प्रतिशत) है, और नवजात विकार (4.6 प्रतिशत) है

हिमाचल प्रदेश और पंजाब उत्तर भारत के दो समीपवर्ती राज्य हैं जिन दोनों के विकास संकेतक दूसरे राज्यों के मुकाबले काफी ज्यादा हैं और उन्नत महामारी विज्ञान संक्रमण चरण में हैं. हालांकि, विशिष्ट प्रमुख बीमारियों के बर्डन स्तर में उनके बीच भी जबरदस्त मतभेद दिखे. पंजाब में मधुमेह से प्रति व्यक्ति जोखिम 157 प्रतिशत अधिक था, इस्केमिक हृदय रोग से 134 प्रतिशत, स्ट्रोक से 49 प्रतिशत, और सड़क दुर्घटनाओं से 56 प्रतिशत अधिक क्षतियां दर्ज की गईं. दूसरी ओर, हिमाचल प्रदेश में क्रॉनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज से प्रति व्यक्ति 63 प्रतिशत अधिक जोखिम था. इन निष्कर्षों के अनुरूप, पंजाब में हिमाचल प्रदेश की तुलना में हृदय संबंधी जोखिमों का स्तर काफी अधिक था.

 

सभी राज्यों में गैर-संचारी रोगों के बढ़ते जोखिम

1990 के बाद से पूरे भारत में गैर-संचारी रोगों से जोखिम बढ़े हैं, जिसमें हृदय रोग, मधुमेह, पुरानी श्वसन संबंधी बीमारियां, मानसिक स्वास्थ्य और तंत्रिका संबंधी विकार, कैंसर, मस्कुलोस्केलेटल विकार और क्रोनिक किडनी रोग शामिल हैं.

पिछले 25 वर्षों के दौरान भारत में हर राज्य में हृदय संबंधी बीमारियां और पक्षाघात के मामले 50% से अधिक बढ़े हैं। देश में हुईं कुल मौतों और बीमारियों के लिए इन रोगों का योगदान 1990 से लगभग दोगुना हो गया है। भारत में अधिकांश बीमारियों में हृदय रोग प्रमुख है, और वहीं पक्षाघात पांचवां प्रमुख कारण पाया गया है।

भारत में हुईं कुल मौतों में से हृदय संबंधी बीमारियों और पक्षाघात के कारण हुईं मृत्यु के आंकड़े 1990 में 15.2 प्रतिशत थे, जो 2016 में बढ़कर 28.1 प्रतिशत आंके गए हैं। कुल मौतों में से 17.8 प्रतिशत हृदयरोग और 7.1 प्रतिशत पक्षाघात के कारण हुईं। महिलाओं की तुलना में पुरुषों में हृदय रोग के कारण मृत्यु और अक्षमता का अनुपात काफी अधिक है, लेकिन पुरुषों और महिलाओं में पक्षाघात समान रूप से पाया गया। भारत में कार्डियोवैस्कुलर बीमारियों के कारण होने वाली मौतों की संख्या 1990 में 13 लाख से बढ़कर 2016 में 28 लाख पाई गई।

कार्डियोवैस्कुलर बीमारियों के मामलों की संख्या 1990 में 2.57 करोड़ से बढ़कर 2016 में 5.45 करोड़ हो गई है। केरल, पंजाब और तमिलनाडु में इनका प्रसार सबसे अधिक था, इसके बाद आंध्र प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र, गोवा, और पश्चिम बंगाल में भी ये अधिक पाए गए हैं। वर्ष 2016 में भारत में कार्डियोवैस्कुलर बीमारियों के कारण हुईं कुल मौतों में से आधे से ज्यादा लोग 70 साल से कम उम्र के थे।

 

संक्रामक और संबंधित रोग हुए कम, लेकिन अभी भी कई राज्यों में अधिक

1990 से 2016 तक भारत में सबसे अधिक संक्रामक और संबद्ध बीमारियों का बोझ कम हुआ, लेकिन 2016 में भारत में बीमारी के बोझ के दस व्यक्तिगत कारणों में से पांच अभी भी इस समूह से संबंधित थे: डायरिया के रोग, श्वसन संक्रमण, लोहे की कमी से एनीमिया, अपरिपक्व जन्म जटिलताएं और तपेदिक जैसे रोग अभी भी बोझ बने हुए हैं.

इन बिमारियों का प्रकोप आम तौर पर अन्य राज्यों की तुलना में सशर्त कार्रवाई समूह (ईएजी) और उत्तर-पूर्व राज्य समूहों में बहुत अधिक है, लेकिन इन समूहों के भीतर भी राज्यों के बीच उल्लेखनीय भिन्नताएं हैं.

यह गौरतलब है कि अधिकार प्राप्त कार्रवाई समूह (ईएजी) राज्य आठ राज्यों का एक समूह है, जिसमें बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्य प्रदेश, ओडिशा, राजस्थान, उत्तराखंड, और उत्तर प्रदेश शामिल हैं और जो भारत सरकार से विकास के लिए विशेष सहायता प्राप्त करते हैं.

संपूर्ण भारत में डायरिया रोगों, आयरन की कमी से एनीमिया, और तपेदिक रोग के जोखिम या DALY विकास दर, अन्य भौगोलिक क्षेत्रों के मुकाबले वैश्विक स्तर पर औसत से 2.5 से 3.5 गुना अधिक थी, यह दर्शाता है कि यह जोखिम काफी हद तक कम किए जा सकते हैं.

 

राज्यों में बढ़ते हादसे

1990 के बाद से अधिकांश राज्यों में हादसों में चोटिल होने के मामलों में बढ़ोतरी हुई है. हादसों में चोटिल होने वालों में अधिक अनुपात में युवा हैं. सड़क हादसे में चोटें और आत्म-क्षति, जिसमें आत्महत्या के आत्मघाती और गैर-घातक परिणाम शामिल हैं, भारत में ऐसे मामलों की लगातार बढ़ोतरी हो रही है.

2016 में भारत के राज्यों में सड़क हादसों में चोटिल होने वालों की दर 3 गुना और आत्म-क्षति की 6 गुना है

सड़क हादसों में चोटिल होने वालों में महिलाओं की तुलना में पुरुषों की संख्या बहुत अधिक थी. साल 2016 में, भारत के लिए स्वयं को नुकसान पहुंचाने की DALY दर वैश्विक स्तर औसत की तुलना में 1.8 गुना अधिक थी.

 

हृदय रोगों और मधुमेह के लिए बढ़ते जोखिम

1990 में भारत में कुल बिमारियों में से दसवां हिस्सा अस्वास्थ्यकर आहार, उच्च रक्तचाप, उच्च रक्त शर्करा, उच्च कोलेस्ट्रॉल और अधिक वजन सहित जोखिम के एक समूह के कारण हुआ, जो मुख्य रूप से इस्केमिक हृदय रोग, स्ट्रोक और मधुमेह जैसे रोगों के जोखिम पैदा करते हैं. लेकिन 2016 में भारत में हृदय रोग, स्ट्रोक और मधुमेह जैसे रोगों के जोखिमों में अत्यधिक बढ़ोतरी हुई है.

1990 से 2016 के बीच सभी राज्यों में जोखिम बढ़ गए हैं। कम विकसित राज्यों में, हृदय रोगों का प्रसार कम था. बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मेघालय, असम, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और ओडिशा में, रोग का प्रसार प्रति 1,000,000 आबादी पर 3,000 से 4,000 के बीच था. लेकिन 1990 की तुलना में जोखिम कारकों में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। हाल के वर्षों में इन राज्यों में बीमारी के बोझ में भी 15 फीसदी की वृद्धि हुई है.

2016 में, इन रोगों का प्रकोप पंजाब, तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र में सबसे अधिक था, लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि इन रोगों के जोखिम, साल 1990 के बाद से देश के हर राज्य में बढ़ गए हैं.

हृदय रोगों और मधुमेह के साथ-साथ कैंसर और कुछ अन्य बीमारियों का मुख्य कारक, तम्बाकू का उपयोग करना है, जिसकी वजह से 2016 में भारत में कुल रोग में से 6% रोग होते हैं. महिलाओं की तुलना में ये सभी जोखिम आमतौर पर पुरुषों में अधिक हैं.

 

बच्चे और मातृ कुपोषण का कुरूप

साल 1990 के बाद से भारत में बाल और मातृ कुपोषण के कारण होने वाली बिमारियों में काफी हद तक कमी आई है, लेकिन कुपोषण अभी भी सबसे बड़ा कारक है, जोकि साल 2016 में भारत में 15% बिमारियों का कारण बना है. कुपोषण का प्रकोप प्रमुख ईएजी राज्यों और असम में सबसे अधिक है, और पुरुषों की तुलना में महिलाओं में अधिक है.

बाल और मातृ कुपोषण मुख्य रूप से नवजात विकारों, पोषण संबंधी कमियों, डायरिया रोगों, श्वसन संक्रमण और अन्य सामान्य संक्रमणों के जोखिमों को बढ़ाकर बिमारियों का कारण बनता है.

इसके विपरीत, भारत में बाल और मातृ कुपोषण के कारण होने वाले रोग, साल 2016 में, चीन की तुलना में प्रति व्यक्ति 12 गुना अधिक थे. भारतीय राज्यों में इस जोखिम के कारण केरल में सबसे कम बीमार थे, लेकिन यहां तक कि यह चीन की तुलना में प्रति व्यक्ति 2.7 गुना अधिक था.

 

असुरक्षित जल और स्वच्छता में हुआ सुधार, लेकिन अभी तक पर्याप्त नहीं है

साल 1990 में, असुरक्षित जल और स्वच्छता, भारत में बिमारियों के पनपने का दूसरा प्रमुख कारण था, लेकिन 2016 में यह गिरकर सातवां प्रमुख कारण हो गया है. इसके कारण अभी भी  5 प्रतिशत बिमारियों का कारण बनता है, जिनमें मुख्य रूप से डायरिया रोगों और अन्य संक्रमण शामिल हैं.

इसके कारण बिमारियों के जोखिम कई ईएजी राज्यों और असम में अभी भी सबसे अधिक हैं, और पुरुषों की तुलना में महिलाओं में अधिक है. साल 1990 से 2016 तक, ईएजी राज्यों में इसके जोखिमों में सुधार कम से कम देखने को मिला, जो दर्शाता है कि इन राज्यों में तेजी से सुधार के लिए अधिक फोकस की आवश्यकता है.

2016 में, असुरक्षित पानी और स्वच्छता के कारण प्रति व्यक्ति बिमारियों का जोखिम चीन की तुलना में भारत में 40 गुना अधिक था.

 

घरेलू वायु प्रदूषण में सुधार, लेकिन बाहरी वायु प्रदूषण बढ़ रहा है

भारत में धूम्रपान कम हो रहा है और यहां तक कि घरेलू वायु प्रदूषण भी कम हो रहा है, लेकिन भारत के ज्यादातर हिस्सों में परिवेशी (बाहरी) वायु प्रदूषण बढ़ रहा है.

1990 से 2016 के बीच भारत में वायु प्रदूषण से होने वाली बिमारियां दुनिया में सबसे अधिक थीं. यह गैर-संचारी और संक्रामक रोगों के मिश्रण से बिमारियों के जोखिम का बड़ा कारण है, जिसमें मुख्य रूप से हृदय रोगों, पुरानी सांस की बीमारियों और कम श्वसन संक्रमण जैसे रोग शामिल हैं.

1990-2016 की अवधि के दौरान घरेलू वायु प्रदूषण का बोझ खाना पकाने के लिए ठोस ईंधन के घटते उपयोग के कारण कम हुआ, और बिजली उत्पादन, उद्योग, वाहन, निर्माण और अपशिष्ट जल से विभिन्न प्रकार के प्रदूषकों के कारण बाहरी वायु प्रदूषण में वृद्धि हुई है.

घरेलू वायु प्रदूषण 2016 में भारत में कुल बिमारियों के 5 प्रतिशत और बाहरी वायु प्रदूषण 6 प्रतिशत के लिए जिम्मेदार था. घरेलू वायु प्रदूषण के कारण बिमारियों के जोखिम ईएजी राज्यों में सबसे अधिक हैं, जहां 1990 के बाद इसका सुधार भी सबसे धीमा रहा है. दूसरी ओर, बाहरी वायु प्रदूषण के कारण बिमारियों के जोखिम हरियाणा, उत्तर प्रदेश, पंजाब, राजस्थान, बिहार, और पश्चिम बंगाल सहित उत्तरी राज्यों में सबसे अधिक बढ़े हैं.


 

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