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भूख | सवाल सेहत का
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What's Inside

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण यानी नेशनल फैमिली हैल्थ सर्वे(एमएफएचएस)-३ (२००५-०६) के अनुसार-(http://pib.nic.in/release/release.asp?relid=31835

एनएफएचएस-३ के आकलन के मुताबिक महिलाओं में पोषण की दशा उतार पर है। 

  • एनएफएचएस-३ के आकलन के अनुसार भारत में प्रजनन-स्वास्थ्य की स्थिति पहले की तुलना में थोड़ी बहुत सुधरी है। महिलाएं पहले की तुलना में कम संतान की मां बन रही हैं और शिशु मृत्यु दर भी १९९८-९९ के एनएफएचएस सर्वे की तुलना में घटा है।
  • व्यस्कों और बच्चों में एनीमिया(खून में लौह-तत्व की कमी) और कुपोषण का प्रसार अब भी बहुत ज्यादा है। हालांकि यह तथ्य यहां असंगत जान पड़ सकता है मगर सर्वेक्षण में पाया गया कि शहरों में अधिकतर व्यस्क- (खासकर महिलाएं) सात साल पहले हुए सर्वेक्षण की तुलना में या तो सामान्य से ज्यादा वजन के हैं या फिर मोटे हैं।

परिवार नियोजन की तस्वीर

  • एनएफएचएस-२ के बाद से जनन-दर में लगातार कमी आयी है और यह २.९ शिशु से घटकर २.७ शिशु के औसत पर चली आयी है। जनन-दर दस राज्यो में (इनमें अधिकतर दक्षिण भारत के हैं) रिप्लेसमेंट लेबल या फिर रिप्लेसमेंट लेबल से नीचे चला आया है। रिप्लेसमेंट लेबल- जनन-दर का वह स्तर जब एक पीढ़ी अपनी परवर्ती पीढ़ी का स्थान लेती है। विकसित देशों में प्रति महिला यह दर २.१ शिशु की है लेकिन जिन देशों में शिशु और बाल मृत्यु दर ज्यादा है वहां २.१ से ज्यादा का औसत लिया जाता है। ज्यादा जानकारी के लिए देखें-http://www.ncbi.nlm.nih.gov/pubmed/7834459) 
  • जनन-दर में कमी की दिशा में एक बाधा यह है कि एक बड़ी आबादी के भीतर नर-शिशु जनने के लिए ललक बनी हुई है। एनएफएचएस -३ में दो लड़कियों(और कोई लड़का नहीं) की मां बन चुकी ६२ फीसदी महिलाओं ने कहा कि वे अब और संतान पैदा करना नहीं चाहतीं जबकि एनएफएचएस-२ में महज ४२ फीसदी महिलाओं ने यह बात कही थी।
  • गर्भनिरोधकों के बढते चलन के कारण जनन-दर में कमी आयी है। ऐसा पहली बार हुआ है कि देश में आधी से ज्यादा नवविवाहित महिलाएं गर्भनिरोधकों का इस्तेमाल कर रही हैं। एनएफएचएस-२ के दौरान ४३ फीसदी महिलाएं गर्भनिरोधक के आधुनिक साधनों का इस्तेमाल कर रही थीं जबकि एनएफएचएस-३ में ४९ फीसदी महिलाएं। 
  • विवाह की औसत आयु में बढ़ोत्तरी हुई है-जनन दर में कमी का यह भी एक कारण है। सात साल पहले यानी एनएफएचएस -२ के दौरान पता चला थी कि २०-२४ की उम्र वाली ५० फीसदी महिलाओं का ब्याह १८ साल से कम उम्र में हुआ जबकि एनएफएचएस-३ के दौरान यह आंकड़ा घटकर ४५ फीसदी पर जा पहुंचा। विवाह की औसत आयु में इजाफा होने के कारण पिछले सात सालों में पहले प्रसव की औसत आयु में भी ६ महीने की (१९.८ साल) बढो़तरी हुई है. 


आधी से ज्यादा महिलाओं की गर्भावस्था और प्रसव के दौरान समुचित चिकित्सीय देखभाल नहीं होती।

  • गर्भावस्था के दौरान चिकित्सीय देखभाल के मामले में गांव और शहर की महिलाओं के बीच काफी अन्तर है। शहर की ७४ फीसदी महिलाओं को प्रसव से पहले कम से कम तीन दफे की अनिवार्य डॉक्टरी देखभाल हासिल होती है जबकि ग्रामीण क्षेत्र की महिलाओं के लिए यह आंकड़ा ४३ फीसदी का है। ऐन प्रसव के समय किसी प्रशिक्षित व्यक्ति की सहायता मिलने की घटना में पिछले सात सालों में ४३ फीसदी के मुकाबले ४९ फीसदी का इजाफा हुआ है।लेकिन यहां भी शहर और गांव की महिलाओं के बीच अंतर स्पष्ट है। एनएफएचसी-३ के दौरान पाया गया कि सिर्फ ग्रामीण इलाके में सिर्फ ३९ फीसदी महिलाओं को प्रसव के दौरान किसी प्रशिक्षित व्यक्ति की सहायता मिल पाती है जबकि शहरी इलाके में ७५ फीसदी महिलाओं को यह सहायता हासिल होती है। 
  • पिछले सात सालों के दौरान अस्पताल में प्रसव करने की तादाद ३४ फीसदी से बढ़कर ४१ फीसदी हो गई है लेकिन अधिकांश महिलाएं अब भी घर में प्रसव करने को मजबूर हैं। प्रसूतियों में सिर्फ एक तिहाई को प्रसव के दो दिन के अंदर प्रसवोपरांत दी जाने वाली मेडिकल देखभाल हासिल हो पायी।

शिशु-मृत्यु दर में कमी आयी है लेकिन पूर्ण टीकाकरण कवरेज में कोई खास प्रगति नहीं हुई है।
 

  • शिशु-मृत्यु दर में लगातार कमी आ रही है। साल १९९८-९९ में प्रति हाजार नवजात शिशुओं में ६८ शिशु काल कवलित हुए जबकि साल २००५-०६ में ५७ नवजात शिशु।
  • बिहार,  गोवा,  हरियाणा,  जम्मू-कश्मीर, मेघालय, उड़ीसा, पंजाब, राजस्थान, तमिलनाडु और उत्तरप्रदेश में शिशु-मृत्यु दर में उल्लेखनीय कमी आयी है।
  • सात साल पहले १२-१३ महीने के नवजात शिशुओं में महज ४४ फीसदी को सभी रोग-प्रतिरोधी टीके लगाने में सफलता मिली थी लेकिन एनएफएचएस-३ के दौरान यह आंकड़ा बढकर ४४ फीसदी हो गया। 
  • डीपीटी के टीके को छोड़कर अन्य सभी टीकों को लगाने की घटना में अच्छी बढो़तरी हुई है। डीपीटी का टीका लगाने की घटना में एनएफएचएस-२ और एनएफएचएस-३ के बीच की अवधि में कोई खास प्रगति नहीं हुई है।
  • पोलियो टीकाकरण अभियान के अन्तर्गत पोलियो की दवा पिलाने का दायरा बढ़ा है फिर भी १२-१३ महीने के लगभग एक चौथाई शिशुओं शिशुओं को दवा पिलाने के मामले में तीन खुराक के मानक का पालन नहीं किया जा सका है। 
  • टीकाकरण करने की घटना में हुई प्रगति को राज्यवार देखें तो उनके बीच बहुत ज्यादा का अंतर मिलेगा। ११ राज्य ऐसे हैं जहां पूर्ण टीकाकरण के अभियान में कमी आयी है क्योंकि इन राज्यों में डीपीटी का टीका और पोलियो की खुराक देने के मामले में खास प्रगति नहीं हो पायी है। 
  • इस सिलसिले में सबसे ज्यादा गिरावट महाराष्ट्र, मिजोरम, आंध्रप्रदेश और पंजाब में देखने में आयी। दूसरी तरफ पूर्ण टीकाकरण की दिशा में बिहार, छ्तीसगढ़, झारखंड, सिक्किम और पश्चिम बंगाल में अच्छी प्रगति हुई है। पूर्ण टीकाकरण की दिशा में असम, हरियाणा, जम्मू-कश्मीर, मध्यप्रदेश, मेघालय और  उत्तरांचल में भी एनएफएचएस-२ के मुकाबले एनएफएचएस-३ में उल्लेखनीय प्रगति देखने में आयी। 
  • बच्चों में डायरिया अब भी एक बड़ी चुनौती है। हालांकि एक बड़ी संख्या में माताएं ओआरएस घोल (ओरल डीहाईड्रेशन साल्टस्) के बारे में जानती हैं लेकिन डायरिया की स्थिति में मात्र ५८ फीसदी बच्चों को ही किसी चिकित्सा केंद्र में ले जाया गया। सात साल पहले यह आंकड़ा ६५ फीसदी का था।


साल १९९१ से २००५-०६ के बीच डिस्पेंसरी, अस्पताल (प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र सहित) , डाक्टर और नर्सिग कर्मचारियों की संख्या में बढो़तरी हुई है। इसे नीचे दी गई सारणी में देखा जा सकता है।  

स्वास्थ्य सुविधाएं-एक नजर

  1991  2005/2006
 SC/PHC/CHC (March 2006)  57353  171567
 Dispensaries and Hospitals (all) (1.4.2006)  23555  32156
 Nursing Personnel (2005)  143887  1481270
 Doctors (Modern System) (2005)  268700  660801

स्रोत-इकॉनॉमिक सर्वे २००७-०८
http://indiabudget.nic.in/es2007-08/chapt2008/chap106.pdf

 


 

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